गयासुद्दीन बलबन का इतिहास | History of Ghiyasuddin Balban
गयासुद्दीन बलबन का इतिहास
(1266-1290 ई.) सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु 1265 ई. में होने के पश्चात् इसका नायब-ए-मामलिकात बलबन 1266 ई. में ‘बलबनी वंश’ के नाम से दिल्ली सल्तनत के तख्तोताज का सुल्तान बना।
गयासुद्दीन बलबन ने सुल्तान बनते ही तुर्क-ए-चहलगानी (चालीस तुर्क सरदार) का अन्त कर दिया। इस समय चालीस गुलाम सरदारों का संगठन जीवित अवस्था में था जो गयासुद्दीन बलबन की सत्ता का विरोध कर सकते थे क्योंकि गयासुद्दीन बलबन स्वयं इस संगठन का एक सदस्य रहा था तथा वहीं से अपनी योग्यता के बल पर सर्वोच्च पद नायब-ए-मामलिकात के पद तक पहुँचा था।
अतः अब वह सल्तनत का सुलतान बन चुका था। इसलिए ईष्यावश वे कभी भी बलबन की सत्ता को चुनौती दे सकते थे, जो एक बहुत बड़ी समस्या थी।
दिल्ली के आस-पास मेवाती लोग आतंक फैला रहे थे तथा दिल्ली के | नागरिक दिल्ली की सत्ता के भय से मुक्त हो चुके थे। सुल्तान | के पद, प्रतिष्ठा, सम्मान का उनके मन में कोई भय नहीं रहा था।
इन सब समस्याओं से निपटने के लिए गयासुद्दीन बलबन ने ‘राजत्व का सिद्धान्त’ दिया, जिसके अनुसार ईश्वर के पश्चात् सुल्तान का स्थान होता है तथा सुल्तान पूर्णतः निरंकुश होता है।
उसने अपने दरबार में सिजदा (भूमि पर लेटकर प्रणाम करना), पैबोस | (सुल्तान के चरणों को चूमना) जैसी प्रथाएँ व फारसी त्यौहार नवरोज (नौरोज) को प्रतिवर्ष अपने दरबार में मनाना आरम्भ किया तथा धीरे-धीरे समस्त तुर्की सरदारों का अन्त किया। सेना का संगठन खड़ा किया।
एक नवीन प्रणाली गुप्तचर व्यवस्था (बरीद) का प्रारम्भ किया तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त पर सुरक्षा हेतु कई मजबूत दुर्गों का निर्माण करवाया। |
इल्तुतमिश के समय विजित समस्त प्रदेशों को सुव्यवस्थित एवं संगठित किया। अतः बलबन का शासन पूर्व विजित प्रदेशों को नियन्त्रित करने, उन पर अपना मजबूत नियन्त्रण रखने तक | सीमित था न कि साम्राज्य विस्तार का।
1279 ई. में अवश्य उसने बंगाल के शासक तुगरिल खाँ को परास्त करने हेतु युद्धाभियान किया था, जिसमें उसकी विजय हुई थी। इस तरह 1287 ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपना उत्तराधिकारी मुहम्मद के पुत्र कैखुशरो को चुना था।
मगर दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन को यह पसन्द न होने के कारण बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को दिल्ली का सुल्तान चुना था, जिसने | 1290 ई. तक शासन किया।
गयासुद्दीन बलबन ने फारसी (ईरानी) परम्परा की तर्ज पर ‘सिजदा’ तथा ‘पाबोस’ की प्रथा चलाई।
उसने फारसी परम्परा पर आधारित ‘नवरोज’ उत्सव की शुरूआत की।
गयासुद्दीन बलबन ने अपने विरोधियों से निबटने के लिए ‘लौह एवं रक्त’ की नीति का अनुसरण किया।