Sunderkand Lyrics » सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ

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Sunderkand Lyrics » सुन्दरकाण्ड पाठ | सुंदरकांड - कथा प्रारम्भ होत है। सुनहुँ वीर हनुमान || राम लखन जानकी। करहुँ सदा कल्याण ||

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Sunderkand Lyrics

सुन्दरकाण्ड आसन

कथा प्रारम्भ होत है। सुनहुँ वीर हनुमान ||
राम लखन जानकी। करहुँ सदा कल्याण ||

श्री गणेशाय नमः

|| पञ्चम सोपान सुन्दरकाण्ड ||

संपूर्ण सुंदरकांड पाठ- श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं,
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्,
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं,
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ||1 ||

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ||2 ||

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् |
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||3 ||

जामवंत के बचन सुहाए | सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ||
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई | सहि दुख कंद मूल फल खाई ||
जब लगि आवौं सीतहि देखी | होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ||
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा | चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ||

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर | कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ||
बार बार रघुबीर सँभारी | तरकेउ पवनतनय बल भारी ||
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता | चलेउ सो गा पाताल तुरंता ||
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना | एही भाँति चलेउ हनुमाना ||
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी | तैं मैनाक होहि श्रमहारी ||

सुंदरकांड दोहा – 1

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ||1 ||

जात पवनसुत देवन्ह देखा | जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ||
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता | पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ||
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा | सुनत बचन कह पवनकुमारा ||
राम काजु करि फिरि मैं आवौं | सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ||

तब तव बदन पैठिहउँ आई | सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ||
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना | ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ||
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा | कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ||
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ | तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ||

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा | तासु दून कपि रूप देखावा ||
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा | अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ||
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा | मागा बिदा ताहि सिरु नावा ||
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा | बुधि बल मरमु तोर मै पावा ||

सुंदरकांड दोहा – 2

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ||2 ||

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई | करि माया नभु के खग गहई ||
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं | जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ||
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई | एहि बिधि सदा गगनचर खाई ||
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा | तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ||
ताहि मारि मारुतसुत बीरा | बारिधि पार गयउ मतिधीरा ||

तहाँ जाइ देखी बन सोभा | गुंजत चंचरीक मधु लोभा ||
नाना तरु फल फूल सुहाए | खग मृग बृंद देखि मन भाए ||
सैल बिसाल देखि एक आगें | ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ||
उमा न कछु कपि कै अधिकाई | प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ||
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी | कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ||
अति उतंग जलनिधि चहु पासा | कनक कोट कर परम प्रकासा ||

छं0 – कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ||
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ||
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ||1 ||
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ||
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ||2 ||
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ||
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ||3 ||

सुंदरकांड दोहा – 3

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ||3 ||

मसक समान रूप कपि धरी | लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ||
नाम लंकिनी एक निसिचरी | सो कह चलेसि मोहि निंदरी ||
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा | मोर अहार जहाँ लगि चोरा ||
मुठिका एक महा कपि हनी | रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ||
पुनि संभारि उठि सो लंका | जोरि पानि कर बिनय संसका ||
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा | चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ||
बिकल होसि तैं कपि कें मारे | तब जानेसु निसिचर संघारे ||
तात मोर अति पुन्य बहूता | देखेउँ नयन राम कर दूता ||

सुंदरकांड दोहा – 4

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ||4 ||

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा | हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ||
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई | गोपद सिंधु अनल सितलाई ||
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही | राम कृपा करि चितवा जाही ||
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना | पैठा नगर सुमिरि भगवाना ||
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा | देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ||
गयउ दसानन मंदिर माहीं | अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ||
सयन किए देखा कपि तेही | मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ||
भवन एक पुनि दीख सुहावा | हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ||

सुंदरकांड दोहा – 5

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ||5 ||

लंका निसिचर निकर निवासा | इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ||
मन महुँ तरक करै कपि लागा | तेहीं समय बिभीषनु जागा ||
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा | हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ||
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी | साधु ते होइ न कारज हानी ||
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए | सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ||
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई | बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ||
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई | मोरें हृदय प्रीति अति होई ||
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी | आयहु मोहि करन बड़भागी ||

सुंदरकांड दोहा – 6

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ||6 ||

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी | जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ||
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा | करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ||
तामस तनु कछु साधन नाहीं | प्रीति न पद सरोज मन माहीं ||
अब मोहि भा भरोस हनुमंता | बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ||
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा | तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ||
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती | करहिं सदा सेवक पर प्रीती ||
कहहु कवन मैं परम कुलीना | कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ||
प्रात लेइ जो नाम हमारा | तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ||

सुंदरकांड दोहा – 7

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ||7 ||

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी | फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ||
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा | पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ||
पुनि सब कथा बिभीषन कही | जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ||
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता | देखी चहउँ जानकी माता ||
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई | चलेउ पवनसुत बिदा कराई ||
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ | बन असोक सीता रह जहवाँ ||
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा | बैठेहिं बीति जात निसि जामा ||
कृस तन सीस जटा एक बेनी | जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ||

सुंदरकांड दोहा – 8

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ||8 ||

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई | करइ बिचार करौं का भाई ||
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा | संग नारि बहु किएँ बनावा ||
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा | साम दान भय भेद देखावा ||
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी | मंदोदरी आदि सब रानी ||
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा | एक बार बिलोकु मम ओरा ||
तृन धरि ओट कहति बैदेही | सुमिरि अवधपति परम सनेही ||
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा | कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ||
अस मन समुझु कहति जानकी | खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ||
सठ सूने हरि आनेहि मोहि | अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ||

सुंदरकांड दोहा – 9

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ||9 ||

सीता तैं मम कृत अपमाना | कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ||
नाहिं त सपदि मानु मम बानी | सुमुखि होति न त जीवन हानी ||
स्याम सरोज दाम सम सुंदर | प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ||
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा | सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ||
चंद्रहास हरु मम परितापं | रघुपति बिरह अनल संजातं ||
सीतल निसित बहसि बर धारा | कह सीता हरु मम दुख भारा ||
सुनत बचन पुनि मारन धावा | मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ||
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई | सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ||
मास दिवस महुँ कहा न माना | तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ||

सुंदरकांड दोहा – 10

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ||10 ||

त्रिजटा नाम राच्छसी एका | राम चरन रति निपुन बिबेका ||
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना | सीतहि सेइ करहु हित अपना ||
सपनें बानर लंका जारी | जातुधान सेना सब मारी ||
खर आरूढ़ नगन दससीसा | मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ||
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई | लंका मनहुँ बिभीषन पाई ||
नगर फिरी रघुबीर दोहाई | तब प्रभु सीता बोलि पठाई ||
यह सपना में कहउँ पुकारी | होइहि सत्य गएँ दिन चारी ||
तासु बचन सुनि ते सब डरीं | जनकसुता के चरनन्हि परीं ||

सुंदरकांड दोहा – 11

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ||11 ||

त्रिजटा सन बोली कर जोरी | मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ||
तजौं देह करु बेगि उपाई | दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ||
आनि काठ रचु चिता बनाई | मातु अनल पुनि देहि लगाई ||
सत्य करहि मम प्रीति सयानी | सुनै को श्रवन सूल सम बानी ||
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि | प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ||
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी | अस कहि सो निज भवन सिधारी ||
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला | मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ||
देखिअत प्रगट गगन अंगारा | अवनि न आवत एकउ तारा ||
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी | मानहुँ मोहि जानि हतभागी ||
सुनहि बिनय मम बिटप असोका | सत्य नाम करु हरु मम सोका ||
नूतन किसलय अनल समाना | देहि अगिनि जनि करहि निदाना ||
देखि परम बिरहाकुल सीता | सो छन कपिहि कलप सम बीता ||

सुंदरकांड दोहा – 12

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ||12 ||

तब देखी मुद्रिका मनोहर | राम नाम अंकित अति सुंदर ||
चकित चितव मुदरी पहिचानी | हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ||
जीति को सकइ अजय रघुराई | माया तें असि रचि नहिं जाई ||
सीता मन बिचार कर नाना | मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ||
रामचंद्र गुन बरनैं लागा | सुनतहिं सीता कर दुख भागा ||
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई | आदिहु तें सब कथा सुनाई ||
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई | कहि सो प्रगट होति किन भाई ||
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ | फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ||
राम दूत मैं मातु जानकी | सत्य सपथ करुनानिधान की ||
यह मुद्रिका मातु मैं आनी | दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ||
नर बानरहि संग कहु कैसें | कहि कथा भइ संगति जैसें ||

सुंदरकांड दोहा – 13

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ||
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ||13 ||

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी | सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ||
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना | भयउ तात मों कहुँ जलजाना ||
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी | अनुज सहित सुख भवन खरारी ||
कोमलचित कृपाल रघुराई | कपि केहि हेतु धरी निठुराई ||
सहज बानि सेवक सुख दायक | कबहुँक सुरति करत रघुनायक ||
कबहुँ नयन मम सीतल ताता | होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ||
बचनु न आव नयन भरे बारी | अहह नाथ हौं निपट बिसारी ||
देखि परम बिरहाकुल सीता | बोला कपि मृदु बचन बिनीता ||
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता | तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ||
जनि जननी मानहु जियँ ऊना | तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ||

सुंदरकांड दोहा – 14

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ||14 ||

कहेउ राम बियोग तव सीता | मो कहुँ सकल भए बिपरीता ||
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू | कालनिसा सम निसि ससि भानू ||
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा | बारिद तपत तेल जनु बरिसा ||
जे हित रहे करत तेइ पीरा | उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ||
कहेहू तें कछु दुख घटि होई | काहि कहौं यह जान न कोई ||
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा | जानत प्रिया एकु मनु मोरा ||
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं | जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ||
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही | मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ||
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता | सुमिरु राम सेवक सुखदाता ||
उर आनहु रघुपति प्रभुताई | सुनि मम बचन तजहु कदराई ||

सुंदरकांड दोहा – 15

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ||15 ||

जौं रघुबीर होति सुधि पाई | करते नहिं बिलंबु रघुराई ||
रामबान रबि उएँ जानकी | तम बरूथ कहँ जातुधान की ||
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई | प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ||
कछुक दिवस जननी धरु धीरा | कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ||
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं | तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ||
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना | जातुधान अति भट बलवाना ||
मोरें हृदय परम संदेहा | सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ||
कनक भूधराकार सरीरा | समर भयंकर अतिबल बीरा ||
सीता मन भरोस तब भयऊ | पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ||

सुंदरकांड दोहा – 16

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ||16 ||

मन संतोष सुनत कपि बानी | भगति प्रताप तेज बल सानी ||
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना | होहु तात बल सील निधाना ||
अजर अमर गुननिधि सुत होहू | करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ||
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना | निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ||
बार बार नाएसि पद सीसा | बोला बचन जोरि कर कीसा ||
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता | आसिष तव अमोघ बिख्याता ||
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा | लागि देखि सुंदर फल रूखा ||
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी | परम सुभट रजनीचर भारी ||
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं | जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ||

सुंदरकांड दोहा – 17

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ||17 ||

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा | फल खाएसि तरु तोरैं लागा ||
रहे तहाँ बहु भट रखवारे | कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ||
नाथ एक आवा कपि भारी | तेहिं असोक बाटिका उजारी ||
खाएसि फल अरु बिटप उपारे | रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ||
सुनि रावन पठए भट नाना | तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ||
सब रजनीचर कपि संघारे | गए पुकारत कछु अधमारे ||
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा | चला संग लै सुभट अपारा ||
आवत देखि बिटप गहि तर्जा | ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ||

सुंदरकांड दोहा – 18

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ||18 ||

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना | पठएसि मेघनाद बलवाना ||
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही | देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ||
चला इंद्रजित अतुलित जोधा | बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ||
कपि देखा दारुन भट आवा | कटकटाइ गर्जा अरु धावा ||
अति बिसाल तरु एक उपारा | बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ||
रहे महाभट ताके संगा | गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ||
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा | भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई | ताहि एक छन मुरुछा आई ||
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया | जीति न जाइ प्रभंजन जाया ||

सुंदरकांड दोहा – 19

ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ||19 ||

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा | परतिहुँ बार कटकु संघारा ||
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ | नागपास बाँधेसि लै गयऊ ||
जासु नाम जपि सुनहु भवानी | भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ||
तासु दूत कि बंध तरु आवा | प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ||
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए | कौतुक लागि सभाँ सब आए ||
दसमुख सभा दीखि कपि जाई | कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ||
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता | भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ||
देखि प्रताप न कपि मन संका | जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ||

सुंदरकांड दोहा – 20

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ||20 ||

कह लंकेस कवन तैं कीसा | केहिं के बल घालेहि बन खीसा ||
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही | देखउँ अति असंक सठ तोही ||
मारे निसिचर केहिं अपराधा | कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ||
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया | पाइ जासु बल बिरचित माया ||
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा | पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन | अंडकोस समेत गिरि कानन ||
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता | तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा | तेहि समेत नृप दल मद गंजा ||
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली | बधे सकल अतुलित बलसाली ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 21

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ||21 ||

जानउँ मैं तुम्हरि प्रभुताई | सहसबाहु सन परी लराई ||
समर बालि सन करि जसु पावा | सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ||
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा | कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ||
सब कें देह परम प्रिय स्वामी | मारहिं मोहि कुमारग गामी ||
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे | तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ||
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा | कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ||
बिनती करउँ जोरि कर रावन | सुनहु मान तजि मोर सिखावन ||
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी | भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ||
जाकें डर अति काल डेराई | जो सुर असुर चराचर खाई ||
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै | मोरे कहें जानकी दीजै ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 22

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ||22 ||

राम चरन पंकज उर धरहू | लंका अचल राज तुम्ह करहू ||
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका | तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ||
राम नाम बिनु गिरा न सोहा | देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ||
बसन हीन नहिं सोह सुरारी | सब भूषण भूषित बर नारी ||
राम बिमुख संपति प्रभुताई | जाइ रही पाई बिनु पाई ||
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं | बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ||
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी | बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ||
संकर सहस बिष्नु अज तोही | सकहिं न राखि राम कर द्रोही ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 23

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||23 ||

जदपि कहि कपि अति हित बानी | भगति बिबेक बिरति नय सानी ||
बोला बिहसि महा अभिमानी | मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ||
मृत्यु निकट आई खल तोही | लागेसि अधम सिखावन मोही ||
उलटा होइहि कह हनुमाना | मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ||
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना | बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना ||
सुनत निसाचर मारन धाए | सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।
नाइ सीस करि बिनय बहूता | नीति बिरोध न मारिअ दूता ||
आन दंड कछु करिअ गोसाँई | सबहीं कहा मंत्र भल भाई ||
सुनत बिहसि बोला दसकंधर | अंग भंग करि पठइअ बंदर ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 24

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ||24 ||

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि | तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ||
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई | देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई ||
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना | भइ सहाय सारद मैं जाना ||
जातुधान सुनि रावन बचना | लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ||
रहा न नगर बसन घृत तेला | बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ||
कौतुक कहँ आए पुरबासी | मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ||
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी | नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ||
पावक जरत देखि हनुमंता | भयउ परम लघु रुप तुरंता ||
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं | भई सभीत निसाचर नारीं ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 25

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जéा कपि बढ़ि लाग अकास ||25 ||

देह बिसाल परम हरुआई | मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ||
जरइ नगर भा लोग बिहाला | झपट लपट बहु कोटि कराला ||
तात मातु हा सुनिअ पुकारा | एहि अवसर को हमहि उबारा ||
हम जो कहा यह कपि नहिं होई | बानर रूप धरें सुर कोई ||
साधु अवग्या कर फलु ऐसा | जरइ नगर अनाथ कर जैसा ||
जारा नगरु निमिष एक माहीं | एक बिभीषन कर गृह नाहीं ||
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा | जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ||
उलटि पलटि लंका सब जारी | कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 26

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ||26 ||

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा | जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ||
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ | हरष समेत पवनसुत लयऊ ||
कहेहु तात अस मोर प्रनामा | सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ||
दीन दयाल बिरिदु संभारी | हरहु नाथ मम संकट भारी ||
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु | बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ||
मास दिवस महुँ नाथु न आवा | तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ||
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना | तुम्हहू तात कहत अब जाना ||
तोहि देखि सीतलि भइ छाती | पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 27

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ||27 ||

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी | गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ||
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा | सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ||
हरषे सब बिलोकि हनुमाना | नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ||
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा | कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा ||
मिले सकल अति भए सुखारी | तलफत मीन पाव जिमि बारी ||
चले हरषि रघुनायक पासा | पूँछत कहत नवल इतिहासा ||
तब मधुबन भीतर सब आए | अंगद संमत मधु फल खाए ||
रखवारे जब बरजन लागे | मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 28

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ||28 ||

जौं न होति सीता सुधि पाई | मधुबन के फल सकहिं कि खाई ||
एहि बिधि मन बिचार कर राजा | आइ गए कपि सहित समाजा ||
आइ सबन्हि नावा पद सीसा | मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ||
पूँछी कुसल कुसल पद देखी | राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ||
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना | राखे सकल कपिन्ह के प्राना ||
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ | कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा | किएँ काजु मन हरष बिसेषा ||
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई | परे सकल कपि चरनन्हि जाई ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 29

प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ||29 ||

जामवंत कह सुनु रघुराया | जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ||
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर | सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ||
सोइ बिजई बिनई गुन सागर | तासु सुजसु त्रेलोक उजागर ||
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू | जन्म हमार सुफल भा आजू ||
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी | सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ||
पवनतनय के चरित सुहाए | जामवंत रघुपतिहि सुनाए ||
सुनत कृपानिधि मन अति भाए | पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ||
कहहु तात केहि भाँति जानकी | रहति करति रच्छा स्वप्रान की ||

सुन्दरकाण्ड दोहा – 30

नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ||30 ||

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही | रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ||
नाथ जुगल लोचन भरि बारी | बचन कहे कछु जनककुमारी ||
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना | दीन बंधु प्रनतारति हरना ||
मन क्रम बचन चरन अनुरागी | केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ||
अवगुन एक मोर मैं माना | बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ||
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा | निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ||
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा | स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ||
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी | जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता के अति बिपति बिसाला | बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ||

सुंदरकांड दोहा – 31

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ||31 ||

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना | भरि आए जल राजिव नयना ||
बचन काँय मन मम गति जाही | सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ||
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई | जब तव सुमिरन भजन न होई ||
केतिक बात प्रभु जातुधान की | रिपुहि जीति आनिबी जानकी ||
सुनु कपि तोहि समान उपकारी | नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ||
प्रति उपकार करौं का तोरा | सनमुख होइ न सकत मन मोरा ||
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं | देखेउँ करि बिचार मन माहीं ||
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता | लोचन नीर पुलक अति गाता ||

सुंदरकांड दोहा – 32

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ||32 ||

बार बार प्रभु चहइ उठावा | प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ||
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा | सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ||
सावधान मन करि पुनि संकर | लागे कहन कथा अति सुंदर ||
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा | कर गहि परम निकट बैठावा ||
कहु कपि रावन पालित लंका | केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ||
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना | बोला बचन बिगत अभिमाना ||
साखामृग के बड़ि मनुसाई | साखा तें साखा पर जाई ||
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा | निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई | नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ||

सुंदरकांड दोहा – 33

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ||33 ||

नाथ भगति अति सुखदायनी | देहु कृपा करि अनपायनी ||
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी | एवमस्तु तब कहेउ भवानी ||
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना | ताहि भजनु तजि भाव न आना ||
यह संवाद जासु उर आवा | रघुपति चरन भगति सोइ पावा ||
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा | जय जय जय कृपाल सुखकंदा ||
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा | कहा चलैं कर करहु बनावा ||
अब बिलंबु केहि कारन कीजे | तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ||
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी | नभ तें भवन चले सुर हरषी ||

सुंदरकांड दोहा – 34

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ||34 ||

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा | गरजहिं भालु महाबल कीसा ||
देखी राम सकल कपि सेना | चितइ कृपा करि राजिव नैना ||
राम कृपा बल पाइ कपिंदा | भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ||
हरषि राम तब कीन्ह पयाना | सगुन भए सुंदर सुभ नाना ||
जासु सकल मंगलमय कीती | तासु पयान सगुन यह नीती ||
प्रभु पयान जाना बैदेहीं | फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ||
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई | असगुन भयउ रावनहि सोई ||
चला कटकु को बरनैं पारा | गर्जहि बानर भालु अपारा ||
नख आयुध गिरि पादपधारी | चले गगन महि इच्छाचारी ||
केहरिनाद भालु कपि करहीं | डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ||

छं0 – चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ||

कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ||1 ||
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ||
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ||2 ||

सुंदरकांड दोहा – 35

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ||35 ||

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका | जब ते जारि गयउ कपि लंका ||
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा | नहिं निसिचर कुल केर उबारा ||
जासु दूत बल बरनि न जाई | तेहि आएँ पुर कवन भलाई ||
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी | मंदोदरी अधिक अकुलानी ||
रहसि जोरि कर पति पग लागी | बोली बचन नीति रस पागी ||
कंत करष हरि सन परिहरहू | मोर कहा अति हित हियँ धरहु ||
समुझत जासु दूत कइ करनी | स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ||
तासु नारि निज सचिव बोलाई | पठवहु कंत जो चहहु भलाई ||
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई | सीता सीत निसा सम आई ||
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें | हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ||

सुंदरकांड दोहा – 36

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ||36 ||

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी | बिहसा जगत बिदित अभिमानी ||
सभय सुभाउ नारि कर साचा | मंगल महुँ भय मन अति काचा ||
जौं आवइ मर्कट कटकाई | जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ||
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा | तासु नारि सभीत बड़ि हासा ||
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई | चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ||
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता | भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ||
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई | सिंधु पार सेना सब आई ||
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू | ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ||
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं | नर बानर केहि लेखे माही ||

सुंदरकांड दोहा – 37

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||37 ||

सोइ रावन कहुँ बनि सहाई | अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ||
अवसर जानि बिभीषनु आवा | भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ||
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन | बोला बचन पाइ अनुसासन ||
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता | मति अनुरुप कहउँ हित ताता ||
जो आपन चाहै कल्याना | सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ||
सो परनारि लिलार गोसाईं | तजउ चउथि के चंद कि नाई ||
चौदह भुवन एक पति होई | भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ||
गुन सागर नागर नर जोऊ | अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ||

सुंदरकांड दोहा – 38

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ||38 ||

तात राम नहिं नर भूपाला | भुवनेस्वर कालहु कर काला ||
ब्रह्म अनामय अज भगवंता | ब्यापक अजित अनादि अनंता ||
गो द्विज धेनु देव हितकारी | कृपासिंधु मानुष तनुधारी ||
जन रंजन भंजन खल ब्राता | बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ||
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा | प्रनतारति भंजन रघुनाथा ||
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही | भजहु राम बिनु हेतु सनेही ||
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा | बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ||
जासु नाम त्रय ताप नसावन | सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ||

सुंदरकांड दोहा – 39

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ||39(क) ||
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ||39(ख) ||

माल्यवंत अति सचिव सयाना | तासु बचन सुनि अति सुख माना ||
तात अनुज तव नीति बिभूषन | सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ||
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ | दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ||
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी | कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ||
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं | नाथ पुरान निगम अस कहहीं ||
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना | जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ||
तव उर कुमति बसी बिपरीता | हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ||
कालराति निसिचर कुल केरी | तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ||

सुंदरकांड दोहा – 40

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ||40 ||

बुध पुरान श्रुति संमत बानी | कही बिभीषन नीति बखानी ||
सुनत दसानन उठा रिसाई | खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ||
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा | रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ||
कहसि न खल अस को जग माहीं | भुज बल जाहि जिता मैं नाही ||
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती | सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ||
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा | अनुज गहे पद बारहिं बारा ||
उमा संत कइ इहइ बड़ाई | मंद करत जो करइ भलाई ||
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा | रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ||
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ | सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ||

सुंदरकांड दोहा – 41

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ||41 ||

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं | आयूहीन भए सब तबहीं ||
साधु अवग्या तुरत भवानी | कर कल्यान अखिल कै हानी ||
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा | भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ||
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं | करत मनोरथ बहु मन माहीं ||
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता | अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ||
जे पद परसि तरी रिषिनारी | दंडक कानन पावनकारी ||
जे पद जनकसुताँ उर लाए | कपट कुरंग संग धर धाए ||
हर उर सर सरोज पद जेई | अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई ||

सुंदरकांड दोहा – 42

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ||42 ||

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा | आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ||
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा | जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ||
ताहि राखि कपीस पहिं आए | समाचार सब ताहि सुनाए ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई | आवा मिलन दसानन भाई ||
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा | कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ||
जानि न जाइ निसाचर माया | कामरूप केहि कारन आया ||
भेद हमार लेन सठ आवा | राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ||
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी | मम पन सरनागत भयहारी ||
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना | सरनागत बच्छल भगवाना ||

सुंदरकांड दोहा – 43

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ||43 ||

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू | आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ||
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं | जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||
पापवंत कर सहज सुभाऊ | भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ||
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई | मोरें सनमुख आव कि सोई ||
निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||
भेद लेन पठवा दससीसा | तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ||
जग महुँ सखा निसाचर जेते | लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ||
जौं सभीत आवा सरनाई | रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ||

सुंदरकांड दोहा – 44

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत ||44 ||

सादर तेहि आगें करि बानर | चले जहाँ रघुपति करुनाकर ||
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता | नयनानंद दान के दाता ||
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी | रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ||
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन | स्यामल गात प्रनत भय मोचन ||
सिंघ कंध आयत उर सोहा | आनन अमित मदन मन मोहा ||
नयन नीर पुलकित अति गाता | मन धरि धीर कही मृदु बाता ||
नाथ दसानन कर मैं भ्राता | निसिचर बंस जनम सुरत्राता ||
सहज पापप्रिय तामस देहा | जथा उलूकहि तम पर नेहा ||

सुंदरकांड दोहा – 45

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ||45 ||

अस कहि करत दंडवत देखा | तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ||
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा | भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ||
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी | बोले बचन भगत भयहारी ||
कहु लंकेस सहित परिवारा | कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ||
खल मंडलीं बसहु दिनु राती | सखा धरम निबहइ केहि भाँती ||
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती | अति नय निपुन न भाव अनीती ||
बरु भल बास नरक कर ताता | दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ||
अब पद देखि कुसल रघुराया | जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ||

सुंदरकांड दोहा – 46

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ||46 ||

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना | लोभ मोह मच्छर मद माना ||
जब लगि उर न बसत रघुनाथा | धरें चाप सायक कटि भाथा ||
ममता तरुन तमी अँधिआरी | राग द्वेष उलूक सुखकारी ||
तब लगि बसति जीव मन माहीं | जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ||
अब मैं कुसल मिटे भय भारे | देखि राम पद कमल तुम्हारे ||
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला | ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ||
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ | सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ||
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा | तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ||

सुंदरकांड दोहा –47

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज ||47 ||

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ | जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ||
जौं नर होइ चराचर द्रोही | आवे सभय सरन तकि मोही ||
तजि मद मोह कपट छल नाना | करउँ सद्य तेहि साधु समाना ||
जननी जनक बंधु सुत दारा | तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा ||
सब कै ममता ताग बटोरी | मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ||
समदरसी इच्छा कछु नाहीं | हरष सोक भय नहिं मन माहीं ||
अस सज्जन मम उर बस कैसें | लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ||
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें | धरउँ देह नहिं आन निहोरें ||

सुंदरकांड दोहा – 48

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ||48 ||

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें | तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ||
राम बचन सुनि बानर जूथा | सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ||
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी | नहिं अघात श्रवनामृत जानी ||
पद अंबुज गहि बारहिं बारा | हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ||
सुनहु देव सचराचर स्वामी | प्रनतपाल उर अंतरजामी ||
उर कछु प्रथम बासना रही | प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ||
अब कृपाल निज भगति पावनी | देहु सदा सिव मन भावनी ||
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा | मागा तुरत सिंधु कर नीरा ||
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं | मोर दरसु अमोघ जग माहीं ||
अस कहि राम तिलक तेहि सारा | सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ||

सुंदरकांड दोहा – 49

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड ||49(क) ||
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ||49(ख) ||

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना | ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ||
निज जन जानि ताहि अपनावा | प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ||
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी | सर्बरूप सब रहित उदासी ||
बोले बचन नीति प्रतिपालक | कारन मनुज दनुज कुल घालक ||
सुनु कपीस लंकापति बीरा | केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ||
संकुल मकर उरग झष जाती | अति अगाध दुस्तर सब भाँती ||
कह लंकेस सुनहु रघुनायक | कोटि सिंधु सोषक तव सायक ||
जद्यपि तदपि नीति असि गाई | बिनय करिअ सागर सन जाई ||

सुंदरकांड दोहा – 50

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ||50 ||

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई | करिअ दैव जौं होइ सहाई ||
मंत्र न यह लछिमन मन भावा | राम बचन सुनि अति दुख पावा ||
नाथ दैव कर कवन भरोसा | सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ||
कादर मन कहुँ एक अधारा | दैव दैव आलसी पुकारा ||
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा | ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ||
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई | सिंधु समीप गए रघुराई ||
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई | बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ||
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए | पाछें रावन दूत पठाए ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 51

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ||51 ||

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ | अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ||
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने | सकल बाँधि कपीस पहिं आने ||
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर | अंग भंग करि पठवहु निसिचर ||
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए | बाँधि कटक चहु पास फिराए ||
बहु प्रकार मारन कपि लागे | दीन पुकारत तदपि न त्यागे ||
जो हमार हर नासा काना | तेहि कोसलाधीस कै आना ||
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए | दया लागि हँसि तुरत छोडाए ||
रावन कर दीजहु यह पाती | लछिमन बचन बाचु कुलघाती ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 52

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ||52 ||

तुरत नाइ लछिमन पद माथा | चले दूत बरनत गुन गाथा ||
कहत राम जसु लंकाँ आए | रावन चरन सीस तिन्ह नाए ||
बिहसि दसानन पूँछी बाता | कहसि न सुक आपनि कुसलाता ||
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी | जाहि मृत्यु आई अति नेरी ||
करत राज लंका सठ त्यागी | होइहि जब कर कीट अभागी ||
पुनि कहु भालु कीस कटकाई | कठिन काल प्रेरित चलि आई ||
जिन्ह के जीवन कर रखवारा | भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ||
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी | जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ||

सुंदरकांड पाठ दोहा –53

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ||53 ||

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें | मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ||
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा | जातहिं राम तिलक तेहि सारा ||
रावन दूत हमहि सुनि काना | कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ||
श्रवन नासिका काटै लागे | राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ||
पूँछिहु नाथ राम कटकाई | बदन कोटि सत बरनि न जाई ||
नाना बरन भालु कपि धारी | बिकटानन बिसाल भयकारी ||
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा | सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ||
अमित नाम भट कठिन कराला | अमित नाग बल बिपुल बिसाला ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 54

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ||54 ||

ए कपि सब सुग्रीव समाना | इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ||
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं | तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ||
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर | पदुम अठारह जूथप बंदर ||
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं | जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ||
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा | आयसु पै न देहिं रघुनाथा ||
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला | पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ||
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा | ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ||
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका | मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 55

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ||55 ||

राम तेज बल बुधि बिपुलाई | सेष सहस सत सकहिं न गाई ||
सक सर एक सोषि सत सागर | तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ||
तासु बचन सुनि सागर पाहीं | मागत पंथ कृपा मन माहीं ||
सुनत बचन बिहसा दससीसा | जौं असि मति सहाय कृत कीसा ||
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई | सागर सन ठानी मचलाई ||
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई | रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ||
सचिव सभीत बिभीषन जाकें | बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ||
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी | समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ||
रामानुज दीन्ही यह पाती | नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ||
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन | सचिव बोलि सठ लाग बचावन ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 56

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ||56(क) ||
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ||56(ख) ||

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई | कहत दसानन सबहि सुनाई ||
भूमि परा कर गहत अकासा | लघु तापस कर बाग बिलासा ||
कह सुक नाथ सत्य सब बानी | समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ||
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा | नाथ राम सन तजहु बिरोधा ||
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ | जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ||
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही | उर अपराध न एकउ धरिही ||
जनकसुता रघुनाथहि दीजे | एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही | चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ||
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ | कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ||
करि प्रनामु निज कथा सुनाई | राम कृपाँ आपनि गति पाई ||
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी | राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ||
बंदि राम पद बारहिं बारा | मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 57

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ||57 ||

लछिमन बान सरासन आनू | सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ||
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती | सहज कृपन सन सुंदर नीती ||
ममता रत सन ग्यान कहानी | अति लोभी सन बिरति बखानी ||
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा | ऊसर बीज बएँ फल जथा ||
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा | यह मत लछिमन के मन भावा ||
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला | उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ||
मकर उरग झष गन अकुलाने | जरत जंतु जलनिधि जब जाने ||
कनक थार भरि मनि गन नाना | बिप्र रूप आयउ तजि माना ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 58

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ||58 ||

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे | छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ||
गगन समीर अनल जल धरनी | इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ||
तव प्रेरित मायाँ उपजाए | सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ||
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई | सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ||
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही | मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ||
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई | उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ||
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई | करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 59

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ||59 ||

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई | लरिकाई रिषि आसिष पाई ||
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे | तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ||
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई | करिहउँ बल अनुमान सहाई ||
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ | जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ||
एहि सर मम उत्तर तट बासी | हतहु नाथ खल नर अघ रासी ||
सुनि कृपाल सागर मन पीरा | तुरतहिं हरी राम रनधीरा ||
देखि राम बल पौरुष भारी | हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ||
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा | चरन बंदि पयोधि सिधावा ||

छंद -निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ||
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ||
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ||

सुंदरकांड पाठ दोहा – 60

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ||60 ||

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः।

( इति सुन्दरकाण्ड समाप्त )

Sunderkand Lyrics » सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ
Sunderkand Lyrics » सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ

सुन्दरकाण्ड का पाठ अर्थ सहित

चौपाई – 1
 
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।।
 
भावार्थः- शान्त, सनातन, अप्रमेय ( प्रमाणो से परे ) , निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले , ब्रह्मा , शम्भु और शेष जी से निरंतर सेवित , वेदान्त के द्वारा जानने योग्य , सर्वव्यापक, देवताओ मे सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप मे दिखाने वाले , समस्त पापो को हरने वाले , करूणा की खान, रघुकुल श्रेष्ठ तथा राजाओ के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्र्वर की मै वंदना करता हूँ ।। 1 ।।
 
 
चौपाई – 2
 
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।
 
भावार्थः- हे रघुनाथजी!  मै सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही है ( सब जानते ही है ) कि मेरे हृदय मे दूसरी कोई इच्छा नही है । है रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा ( पूर्ण ) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषो से रहित कीजिए ।। 2 ।।
 
चौपाई – 3
 
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।
 
भावार्थः- अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत ( सुमेरू ) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले , दैत्य रूपी वन ( को ध्वंस करने ) के लिए अग्नि रूप , ज्ञानियो मे अग्रगण्य , संपूर्ण गुणो के निधान , वानरो के स्वामी , श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मै प्रणाम करता हूँ ।। 3 ।।
 
 
चौपाई 
 
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई ।। 1 ।।
 
भावार्थः- जाम्बवान् के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान् जी के हृदय को बहुत ही भाए । ( वे बोले ) हे भाई !  तुम लोग दुःख सहकर , कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना ।। 1 ।। 
 
 
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- जब तक मै सीताजी को देखकर लौट न आऊँ । काम अवश्य होगा , क्योकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है । यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय मे श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान जी हर्षित होकर चले ।। 2 ।।
 
 
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी ।। 3 ।।
 
 भावार्थः- समुन्द्र के तीर पर एक सुन्दर पर्वत था । हनुमान् जी खेल से ही ( अनायास ही ) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान जी उस पर से बड़े वेग से उछले ।। 3 ।।
 
 
 जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।। 4 ।।
 
भावार्थः- जिस पर्वत पर हनुमान् जी पैर रखकर चले ( जिस पर से वे उछले ) वह तुरन्त ही पाताल मे धँस गया । जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है , उसी तरह हनुमान् जी चले ।। 4 ।।
 
 
 जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।। 5 ।।
 
भावार्थः- समुन्द्र ने उन्हे श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि है मैनाक ! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो ( अर्थात् अपने ऊपर इन्हे विश्राम दे )
 
 
दोहा – 1
 
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।1।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी ने उसे हाथ से छू दिया , फिर प्रणाम करके कहा-भाई !  श्री रामचन्द्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहॉ ? ।। 1 ।।
 
 
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ।। 1 ।।
 
भावार्थः- देवताओ ने पवनपुत्र हनुमान् जी को जाते हुए देखा । उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए ( परीक्षार्थ ) उन्होने सुरसा नामक सर्पो की माता को भेजा , उसने आकर हनुमान् जी से यह बात कही ।। 1 ।।
 
 
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ।। 2 ।।
 
भावार्थः- आज देवताओ ने मुझे भोजन दिया है । यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान् जी ने कहा – श्री राम जी का कार्य करके मै लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ ।। 2 ।।
 
 
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ।। 3 ।।
 
भावार्थः- तब मै आकर तुम्हारे मुँह मे घुस जाऊँगा ( तुम मुझे खा लेना ) । हे माता ! मै सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे । जब किसी भी उपाय से उसने जाने नही दिया , तब हनुमान् जी ने कहा – तो फिर मुझे खा न ले ।। 3 ।।
 
 जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।। 4 ।।
 
भावार्थः- उसने योजनभर ( चार कोस मे ) मुँह फैलाया । तब हनुमान् जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया । उसने सोलह योजन का मुख किया , हनुमान् जी तुरन्त ही बत्तीस योजन के हो गए ।। 4 ।।
 
 जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा  ।।5।।
 
भावार्थः-  जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान् जी उसका दूना रूप दिखलाते थे । उसने सौ योजन ( चार सो कोस ) का मुख किया । तब हनुमान् जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया ।। 5 ।।
 
 बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा। ।।6।।
 
भावार्थः- और उसके मुख मे घुसकर ( तुरन्त ) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे । ( उसने कहा – ) मैने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया , जिसके लिए देवताओ ने मुझे भेजा था ।। 6 ।।
 
 दोहा – 2
 
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।।2।।
 
भावार्थः- तुम श्री रामचन्द्र जी का सब कार्य करोगे , क्योकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो । यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान् जी हर्षित होकर चले ।। 2 ।।
 
 
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ।। 1 ।।
 
भावार्थः- समुन्द्र मे एक राक्षसी रहती थी । वह माया करके आकाश मे उड़ते हुए पक्षियो को पकड़ लेती थी । आकाश मे जो जीव-जन्तु उड़ा करते थे , वह जल मे उनकी परछाई देखकर ।। 1 ।।
 
 गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- उस परछाई को पकड़ लेती थी , जिससे वे उड़ नही सकते थे ( और जल मे गिर पड़ते थे ) इस प्रकार वह सदा आकाश मे उड़ने वाले जीवो को खाया करती थी । उसने वही छल हनुमान् जी से भी किया । हनुमान् जी ने तुरन्त ही उसका कपट पहचान लिया ।। 2 ।।
 
 ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा ।। 3 ।।
 
भावार्थः- पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान् जी उसको मारकर समुन्द्र के पार गए । वहाँ जाकर उन्होने वन की शोभा देखी । मधु ( पुष्प रस ) के लोभ से भौरे गुंजार कर रहे थे ।। 3 ।।
 
 नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ।। 4 ।।
 
भावार्थः- अनेको प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित है । पक्षी और पशुओ के समूह को देखकर तो वे मन मे ( बहुत ही ) प्रसन्न हुए । सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान् जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े ।। 4 ।।
 
 
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( शिवजी कहते है ) है उमा ! इसमे वानर हनुमान् की कुछ बड़ाई नहीं है । यह प्रभु का प्रताप है , जो काल को भी खा जाता है । पर्वत पर चढ़कर उन्होने लंका देखी । बहुत ही बड़ा किया है , कुछ कहा नही  जाता ।। 5 ।।
 
 
 अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा ।। 6 ।।
 
भावार्थः- वह अत्यंत ऊँचा है , उसके चारो ओर समुन्द्र है । सोने के परकोटे ( चहार दीवारी ) का परम प्रकाश हो रहा है ।। 6 ।।
 
 छंद 
 
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ।।1।।
 
भावार्थः- विचित्र मणियो से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुन्दर-सुन्दर घर है । चौराहे , बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियाँ है , सुन्दर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है । हाथी, घोड़े, खच्चरो के समूह तथा पैदल और रथो के समूहो को कौन गिन सकता है ! अनेक रूपो के राक्षसो के दल है, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नही बनती ।। 1 ।।
 
 
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। 
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।। 
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। 
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ।।2।।
 
भावार्थः- वन, बाग, उपवन ( बगीचे ), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित है । मनुष्य , नाग, देवताओ और गंधर्वो की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियो के भी मन को मोहे लेती है । कही पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान् मल्ल ( पहलवान् ) गरज रहे है । वे अनेको अखाड़ो मे बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते है ।। 2 ।।
 
 
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ।। 3 ।।
 
भावार्थः- भयंकर शरीर वाले करोड़ो योद्धा यत्न करके ( बड़ी सावधानी से ) नगर की चारो दिशाओ मे ( सब ओर से ) रखवाली करते है । कहीं दुष्ट राक्षस भैसो, मनुष्यो, गायो, गदहो और बकरो को खा रहे है । तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि वे निश्चय ही श्री रामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ मे शरीरो को त्यागकर परमगति पावेगे ।। 3 ।।
 
 
दोहा – 3
 
दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।। 3 ।।
 
भावार्थः- नगर के बहुसंख्यक रखवालो को देखकर हनुमान् जी ने मन विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर मे प्रवेश कँरू ।। 3 ।।
 
 मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।। 1 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी मच्छड़ के समान ( छोटा सा ) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले ( लंका के द्वार पर ) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी । वह बोली-मेरा निरादर करके ( बिना मुझसे पूछे ) कहॉ चला जा रहा है ? ।। 1 ।।
 
 
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे मूर्ख ! तूने मेरा भेद नही जाना जहाँ तक ( जितने ) चोर है, वे सब मेरे आहार है । महाकपि हनुमान् जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढक पड़ी ।। 2 ।।
 
 
पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।। 3 ।।
 
भावार्थः- वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मार हाथ जोड़कर विनती करने लगी । ( वह बोली – ) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था , तब चलते समय उन्होने मुझे राक्षसो के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि ।। 3 ।।
 
 
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता ।। 4 ।।
 
भावार्थः- जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए , तब तू राक्षसो का संहार हुआ जान लेना । है तात ! मेरे बड़े पुण्य है, जो मै श्री रामचंद्रजी के दूत ( आप ) को नेत्रो से देख पाई ।। 4 ।।
 
दोहा – 4
 
दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।4।।
 
भावार्थः- हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखो को तराजू के एक पलड़े मे रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर ( दूसरे पलड़े पर रखे हुए ) उस सुख के बराबर नही हो सकते , जो लव ( क्षण  ) मात्र के सत्संग से होता है ।। 4 ।।
 
 
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई ।। 1 ।।
 
भावार्थः- अयोध्यापुरी के राजा श्री रधुनाथ जी को हृदय मे रखे हुए नगर मे प्रवेश करके सब काम कीजिए । उसके लिए विष अमृत हो जाता है , शत्रु मित्रता करने लगते है, समुन्द्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि मे शीतलता आ जाती है ।। 1 ।।
 
 
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- और हे गरूड़जी ! सुमेरू पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया । तब हनुमान् जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर मे प्रवेश किया ।। 2 ।।
 
 
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ।। 3 ।।
 
भावार्थः- उन्होने एक-एक ( प्रत्येक ) महल की खोज की । जहाँ-तहाँ खसंख्य योद्धा देखे । फिर वे रावण के महल मे गए । वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नही हो सकता ।। 3 ।।
 
 
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी ने उस ( रावण ) को शयन किए देखा, परन्तु महल मे जानकी जी नही दिखाई दी । फिर एक सुन्दर महल दिखाई दिया । वहाँ ( उसमे ) भगवान् का एक अलग मन्दिर बना हुआ था ।। 4 ।।
 

दोहा – 5
 
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ।। 5 ।।
 
भावार्थः- वह महल श्री राम जी के आयुध ( धनुष-बाण ) के चिन्हो से अंकित थे, उसकी शोभा वर्णन नही की जा सकती । वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहो को देखकर कपिराज श्री हनुमान् जी हर्षित हुए ।। 5 ।।
 
 
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा ।। 1 ।।
 
भावार्थः- लंका तो राक्षसो के समूह का निवास स्थान है । यहाँ सज्जन ( साधु पुरूष ) का निवास कहॉ ? हनुमान् जी मन मे इस प्रकार तर्क करने लगे । उसी समय विभीषण जी जागे ।। 1 ।।
 
 
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- उन्होने ( विभीषण ने ) राम नाम का स्मरण ( उच्चारण ) किया । हनुमान् जी ने उन्हे सज्जन जाना और हृदय मे हर्षित हुए । ( हनुमान् जी ने विचार किया कि ) इनसे हठ करके ( अपनी ओर से ही ) परिचय करूँगा , क्योकि साधू से कार्य की हानि नही होती । ( प्रस्तुत लाभ ही होता है । ) ।। 2 ।।
 
 
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ।। 3 ।।
 
भावार्थः- ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान् जी ने उन्हे वचन सुनाए ( पुकारा ) । सुनते ही विभीषण जी उठकर वहाँ आए । प्रणाम करके कुशल पूछी ( और कहा कि ) हे ब्राह्मणदेव ! अपनी कथा समझाकर कहिए ।। 3 ।।
 
 
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- क्या आप हरिभक्तो मे से कोई है ? क्योकि आपको देखकर मेरे हृदय मे अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है । अथवा क्या आप दीनो से प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी ही है जो मुझे बड़भागी बनाने ( घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने ) आए है ?  ।। 4 ।।
 
 
दोहा – 6
 
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।। 6 ।।
 
भावार्थः- तब हनुमान् जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया । सुनते ही दोनो के शरीर पुलकित हो गए और श्री राम जी के गुण समूहो का स्मरण करके दोनो के मन ( प्रेम और आनन्द ) मग्न हो गए ।। 6 ।।
 
 
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ।। 1 ।।
 
भावार्थः- ( विभीषण ने कहा – ) हे पवनपुत्र ! मेरी रहनी सुनो । मै यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतो के बीच मे बेचारी जीभ । हे तात ! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचन्द्रंजी  क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे ? ।। 1 ।।
 
 
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।। 2 ।।
 
भावार्थः- मेरा तामसी ( राक्षस ) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन मे श्री रामचन्द्र जी के चरणकमलो मे प्रेम ही है, परन्तु हे हनुमान् ! अब मुझे विश्र्वास हो गया कि श्री राम जी की मुझ पर कृपा है, क्योकि हरि की कृपा के बिना संत नही मिलते ।। 2 ।।
 
 
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती ।। 3 ।।
 
भावार्थः- जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके ( अपनी ओर से ) दर्शन दिए है । ( हनुमान् जी के कहा – ) हे विभीषणजी ! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते है ।। 3 ।।
 
 
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- भला कहिए, मै ही कौन बड़ा कुलीन हूँ ? ( जाति का ) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगो ( बंदरो ) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले ।। 4 ।।
 
दोहा – 7
 
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।। 7 ।।
 
भावार्थः- हे सखा ! सुनिए, मै ऐसा अधम हूँ, पर श्री राम चन्द्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है । भगवान् के गुणो का स्मरण करके हनुमान् जी के दोनो नेत्रो मे ( प्रेमाश्रुओ का ) जल भर आया ।। 7 ।।
 
 
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ।। 1 ।।
 
भावार्थः- जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी को भुलाकर भटकते फिरते है, वे दुःखी क्यो न हो ? इस प्रकार श्री राम जी के गुण समूहो को कहते हुए उन्होने अनिर्वचनीय ( परम ) शांति प्राप्त की ।। 1 ।।
 
 
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता ।। 2 ।।
 
फिर विभीषणजी ने, श्री जानकी जी जिस प्रकार वहॉ ( लंका मे ) रहती थी, वह सब कथा कही । तब हनुमान् जी ने कहा— भाई सुनो , मै जानकी माता को देखना चाहता हूँ ।। 2 ।।
 
 
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई ।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ ।। 3 ।।
 
भावार्थः- विभीषणजी ने ( माता के दर्शन की ) सब युक्तियाँ ( उपाय ) कह सुनाई । तब हनुमान् जी विदा लेकर चले । फिर वही ( पहले का मसक सरीखा ) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन मे ( वन के जिस भाग मे ) सीताजी रहती थी ।। 3 ।।
 
 
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सीताजी को देखकर हनुमान् जी ने उन्हे मन ही मे प्रणाम किया । उन्हे बैठे ही बैठे रात्रि के चारो पहर बीत जाते है । शरीर दबुला हो गया है , सिर पर जटाओ की एक वेणी ( लट ) है । हृदय मे श्री रघुनाथ जी के गुण समूहो का जाप ( स्मरण ) करती रहती है  ।। 4 ।।
 
 
दोहा – 8
 
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ।।8।।
 
भावार्थः-  श्री जानकी जी नेत्रो को अपने चरणो मे लगाए हुए है ( नीचे की ओर देख रही है ) और मन श्री राम जी के चरण कमलो मे लीन है । जानकी जी को दीन ( दुःख ) देखकर पवनपुत्र हनुमान् जी बहुत ही दुःखी हुए ।। 8 ।।
 
 
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा ।। 1 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी वृक्ष के पत्तो मे छिप रहे और विचार करने गले कि हे भाई ! क्या करूँ ( इनका दुःख कैसे  दूर करूँ ) ? उसी समय बहुत सी स्त्रियो को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया ।। 1 ।।
 
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- उस दुष्ट ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया । साम, दाम, भय और भेद दिखलाया । रावण ने कहा – हे सुमुखि ! सुनो ! मंदोदरी आदि सब रानियो को ।। 2 ।।
 
 
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही ।। 3 ।।
 
भावार्थः- मै तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है । तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही ! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचन्द्रंजी का स्मरण करके जानकी जी तिनके की आड़ ( परदा ) करके कहने लगी ।। 3 ।।
 
 
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे दशमुख ! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है ? जानकी जी फिर कहती है- तू ( अपने लिए भी ) ऐसा ही मन मे समझ ले । रे दुष्ट ! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नही है ।। 4 ।।
 
 
सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ।। 5 ।।
 
भावार्थः- रे पापी ! तू मुझे सूने मे हर लाया है । रे अधम ! निर्लज्ज ! तुझे लज्जा नही आती ?  ।। 5 ।।
 
 
दोहा – 9
 
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ।।9।।
 
भावार्थः- अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनो को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से से आकर बोला ।। 9 ।।
 
 
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी ।। 1 ।।
 
भावार्थः- सीता ! तूने मेरा अपमान किया है । मै तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा । नही तो ( अब भी ) जल्दी मेरी बात मान ले । हे सुमुखि ! नही तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा ।। 1 ।।
 
 
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( सीता जी ने कहा – ) हे दशग्रीव ! प्रभु की भुजा जो श्याम कलम की माला के समान सुंदर और हाथी की सूँड के समान ( पुष्ट तथा विशाल ) है , या तो वह भुजा ही मेरे कंठ मे पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही । रे शठ ! सुन , यही मेरा सच्चा प्रण है ।। 2 ।।
 
 
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा ।। 3 ।।
 
भावार्थः-  सीता जी कहती है – हे चन्द्रहास ( तलवार ) ! श्री रघुनाथ जी के विरह कि अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले , हे तलवार ! तू शीतल,  तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है ( अर्थात् तेरी धारा ठंडी और तेज है ), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले ।। 3 ।।
 
 
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा । तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया । तब रावण ने सब दासियो को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ ।। 4 ।।
 
 
मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।। 5 ।।
 
भावार्थः- यदि महीने भर मे यह कहा न माने तो मै इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा ।। 5 ।।
 
 
दोहा – 10
 
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ।। 10 ।।
 
भावार्थः- ( यो कहकर ) रावण महल चला गया । यहाँ राक्षसियो के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीता जी को भय दिखलाने लगे ।। 10 ।।
 
 
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना ।। 1 ।।
 
भावार्थः- उनमे एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी । उसकी सबो को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा-सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो ।। 1 ।।
 
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- स्वप्न ( मैने देखा कि ) एक बंदर ने लंका जला दी । राक्षसो की सारी सेना मार डाली गई । रावण नंगा है और गदहे पर सवार है । उसके सिर मुँडे हुए है, बीसो भुजाएँ कटी हुई है ।। 2 ।।
 
 
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई ।। 3 ।।
 
भावार्थः- इस प्रकार से वह दक्षिण ( यमपुरी की ) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है । नगर मे श्री रामचन्द्र जी की दुहाई फिर गई । तब प्रभु ने सीता जी को बुला भेजा ।। 3 ।।
 
 
यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं ।। 4 ।।
 
भावार्थः- मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं॥4॥
 
 
दोहा – 11
 
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ।। 11 ।।
 
भावार्थः-  तब ( इसके बाद ) वे सब जहॉ-जहॉ चली गई । सीता जी मन मे सोच करने लगी कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा ।। 11 ।।
 
 
त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ।। 1 ।।
 
भावार्थः- सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोली- हे माता ! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है । जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मै शरीर छोड़ सकूँ । विरह असह्म हो चला है , अब यह सहा नही जाता ।। 1 ।।
 
 
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे । हे माता ! फिर उसमे आग लगा दे । हे सयानी ! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानो से कौन सुने ? ।। 2 ।।
 
 
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी ।। 3 ।।
 
भावार्थः- सीता जी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हे समझाया और प्रभु का प्रताप , बल और सुयश सुनाया । ( उसने कहा – ) हे सुकुमारी ! सुनो रात्रि के समय आग नही मिलेगी । ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई ।। 3 ।।
 
 
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सीता जी ( मन ही मन ) कहने लगी – ( क्या करूँ ) विधाता ही विपरीत हो गया । न आग मिलेगी , न पीड़ा मिटेगी । आकाश मे अंगारे दिखाई दे रहे है, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नही आता  ।। 4 ।।
 
 
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका ।। 5 ।।
 
भावार्थः- चन्द्रमा अग्निमय है , किन्तु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नही बरसाता । हे अशोक वृक्षा मेरी विनती सुन । मेरा शोक हर ले और अपना ( अशोक ) नाम सत्य कर ।। 5 ।।
 
 
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता ।। 6 ।।
 
भावार्थः- तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान है । अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर ( अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा ) सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान् जी को कल्प के समान बीता ।। 6 ।।
 
 दोहा – 12
 
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ।। 12 ।।
 
भावार्थः- तब हनुमान् जी ने हृदय मे विचार कर ( सीता जी के सामने ) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया । ( यह समझकर ) सीता जी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ मे ले लिय़ा ।। 12 ।।
 तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ।। 1 ।।
 
भावार्थः- तब उन्होने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी । अँगूठी को पहचानकर सीता जी आश्र्चर्यचकित होकर उसे देखने लगी और हर्ष तथा विषाद से हृदय मे अखुला उठीं ।। 1 ।।
 
 जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( वे सोचने लगी ) श्री रघुनाथ जी तो सर्वथा अजेय है, उन्हे कौन जीत सकता है ? और माया से ऐसी ( माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय ) अँगूठी बनाई नही जा सकती । सीता जी मन मे अनेक प्रकार के विचार कर रही थी । इसी समय हनुमान् जी मधुर वचन बोले ।। 2 ।।
 
 रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई ।। 3 ।।
 
भावार्थः- वे श्री रामचन्द्र जी के गुणो का वर्णन करने लगे , ( जिनके ) सुनते ही सीता जी का दुःख भाग गया । वे कान और मन लगाकर उन्हे सुनने लगे । हनुमान् जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई ।। 3 ।।
 
 श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई।।
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ।। 4 ।।
 
भावार्थः- ( सीता जी बोली – ) जिसने कानो के लिए अमृत रूप यह सुन्दर कथा कही, वह हे भाई ! प्रकट क्यो नहीं होता ?  तब हनुमान् जी पास चले गए । उन्हे देखकर सीता जी फिर कर ( मुख फेरकर ) बैठ गई ? उनके मन मे आश्र्चर्य हुआ ।। 4 ।।
 
 राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( हनुमान् ने कहा- ) हे माता जानकी मै श्री सामजी का दूत हूँ । करूणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता ! यह अँगूठी मै ही लाया हूँ । श्री राम जी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी ( निशानी या पहिचान ) दी है ।। 5 ।।
 
 नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें ।। 6 ।।
 
भावार्थः- ( सीताजी ने पूछा – ) नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ ? तब हनुमान जी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही ।। 6 ।।
 
 दोहा – 13
 
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ।। 13 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीता जी के मन मे विश्र्वास उत्पन्न हो गया , उन्होने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथ जी का दास है ।। 13 ।।
 
 हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना  ।। 1 ।।
 
भावार्थः- भगवान का जन ( सेवक ) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई । नेत्रो मे ( प्रेमाश्रुओ का ) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया ( सीताजी ने कहा- ) हे तात हनुमान् ! विरहसागर मे डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए ।। 1 ।।
 
 अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई ।। 2 ।।
 
भावार्थः- मै बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्यणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो । श्री रघुनाथ जी तो कोमल हृदय और कृपालु है । फिर हे हनुमान् ! उन्होने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है ? ।। 2 ।।
 
 सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ।। 3 ।।
 
भावार्थः- सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है । वे श्री रघुनाथ जी क्या कभी मेरी भी याद करते है ? हे तात ! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगो को देखकर मेरे नेत्र शीतल होगे ? ।। 3 ।।
 
 बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता ।। 4 ।।
 
भावार्थः- ( मुँह से ) वचन नही निकलता, नेत्रो मे ( विरह के आँसुओ का ) जल भर आया । ( बड़े दुःख से वे बोली ) हा नाथ ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया ! सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान् जी कोमल और विनीत वचन बोले ।। 4 ।।
 
 मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ।। 5 ।।
 
भावार्थः- हे माता ! सुन्दर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित ( शरीर से ) कुशल है, परन्तु आपके दुःख से दुःखी है । है माता ! मन मे ग्लानि न मानिए ( मन छोटा करके दुःख न कीजिए ) । श्री रामचन्द्र जी के ह्रदय मे आपसे दूना प्रेम है ।। 5 ।।
 
 दोहा – 14
 
दो0-रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ।। 14 ।।
 
हे माता ! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथ जी का संदेश सुनिए । ऐसा कहकर हनुमान् जी प्रेम से गद्दद हो गए । उनके नेत्रो मे ( प्रेमाश्रुओ का ) जल भर आया ।। 14 ।।
 
 कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू ।। 1 ।।
 
भावार्थः- ( हनुमान् जी बोले – ) श्री रामचन्द्र जी ने कहा है कि हे सीते ! तुम्हारे वियोग मे मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए है । वृक्षो के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान ।। 1 ।।
 
 कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- और कमलो के वन भालो के वन के समान हो गए है । मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते है । जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे है । त्रिविध ( शीतल, मंद, सुगंध ) वायु साँप के श्र्वास के समान ( जहरीली और गरम ) हो गई है ।। 2 ।।
 
 कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा ।। 3 ।।
 
भावार्थः- मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घच जाता है । पर कहूँ किससे ? यह दुःख कोई जानता नही । हे प्रिये ! मेरे और तेरे प्रेम का तत्व ( रहस्य ) एक मेरा मन ही जानता है ।। 3 ।।
 
 सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ।। 4 ।।
 
भावार्थः- और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है । बस, मेरे प्रेम का सार इतने मे ही समझ ले । प्रभु का संदेश सुनते ही जानकी जी प्रेम मे मग्न हो गई । उन्हे शरीर की सुध न रही ।। 4 ।।
 
 कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई ।। 5 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी ने कहा – हे माता ! हृदय मे धैर्य धारण करो और सेवको को सुख देने वाले श्री राम जी का स्मरण करो । श्री रघुनाथ जी की प्रभुता को हृदय मे लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो ।। 5 ।।
 
 दोहा – 15
 
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।।
 
भावार्थः- राक्षसो के समूह पतंगो के समान और श्री रघुनाथ जी के बाण अग्नि के समान है । हे माता ! हृदय मे धैर्य धारण करो और राक्षसो को जला ही समझो ।। 15 ।।
 
 जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।।
रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की ।। 1 ।।
 
भावार्थः- श्री रामचन्द्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते । हे जानकी जी ! रामबाण रूप सूर्य के उदय होने पर राक्षसो की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है ? ।। 1 ।।
 
 अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे माता ! मै आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचन्द्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु ( उन ) की आज्ञा नही है । ( अतः ) हे माता ! कुछ दिन और धीरज धरो । श्री राम चन्द्रजी वानरो सहित यहाँ आएँगे ।। 2 ।।
 
 निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना ।। 3 ।।
 
भावार्थः- और राक्षसो को मारकर आपको ले जाएँगे । नारद आदि ( ऋषि-मुनि ) तीनो लोको मे उनका यश गाएँगे । ( सीताजी ने कहा – ) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान ( नन्हे-नन्हे से ) होगे , राक्षस तो बड़े बलवान , योद्धा है ।। 3 ।।
 
 मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- अतः मेरे हृदय मे बड़ा भारी संदेह होता है ( कि तुम जैसे बंदर राक्षसो को कैसे जीतेंगे ! ) । यह सुनकर हनुमान् जी ने अपना शरीर प्रकट किया । सोने के पर्वत ( सुमेरू ) के आकार का ( अत्यंत विशाल ) शरीर था, जो युद्ध मे शत्रुओ के हृदय मे भय उत्पन्न करने वाला , अत्यंत बलवान् और वीर था ।। 4 ।।
 
 सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ।। 5 ।।
 
भावार्थः- तब ( उसे देखकर ) सीता जी  के मन मे विश्र्वास हुआ । हनुमान् जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया ।। 5 ।।
 
 दोहा – 16
 
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।।
 
भावार्थः- हे माता ! सुनो , वानरो मे बहुत बल-बुद्धि नही होती, परन्तु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरूड़ को खा सकता है ( अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है ) ।। 16 ।।
 
 मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना ।। 1 ।।
 
भावार्थः- भक्ति , प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान् जी की वाणी सुनकर सीता जी क मन मे संतोष हुआ । उन्होने श्री राम जी के प्रिय जानकर हनुमान् जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात ! तुम बल और शील के निधान होओ ।। 1 ।।
 अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे पुत्र ! तुम अजर ( बुढ़ापे से रहित ) , अमर और गुणो के खजाने हओ । श्री रघुनाथ जी तुम पर बहुत कृपा करे । प्रभु कृपा करे ऐसा कानो से सुनते ही हनुमान् जी पूर्ण प्रेम मे मग्न हो गए ।। 2 ।।
 
 बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता ।। 3 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी ने बार-बार सीता जी के चरणो मे सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता ! अब मै कृतार्थ हो गया । आपका आशीर्वाद अमोघ ( अचूक ) है , यह बात प्रसिध्द है ।। 3 ।।
 
 सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे माता ! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षो को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है । ( सीता जी ने कहा- ) हे बेटा ! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते है ।। 4 ।।
 
 
 तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( हनुमान् जी ने कहा – ) हे माता ! यदि आप मन मे सुख माने ( प्रसन्न होकर ) आज्ञा दे तो मुझे उसका भय तो बिलकुल नही है ।। 5 ।।
 
 दोहा – 17
 
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ।। 17 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी को बुद्धि और बल मे निपुण देखकर जानकी जी ने कहा – जाओ । हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणो को हृदय मे धारण करके मीठे फल खाओ ।। 17 ।।
 
 चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ।। 1 ।।
 
 नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ।। 2 ।।
 
भावार्थः- वे सीता जी को सिर नवाकर चले और बाग मे घुस गए । फल खाए और वृक्षो को तोड़ने लगे । वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे । उनमे से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की ।। 1 ।।
 
( और कहा – ) हे नाथ ! एक बड़ा भारी बंदर आया है । उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली । फल खाए, वृक्षो को उखाड़ डाला और रखवालो को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया ।।  2 ।।
 
 सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे ।। 3 ।।
 
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- यह सुनकर रावण ने बुत से योद्धा भेजे । उन्हे देखकर हनुमान् जी ने गर्जना की । हनुमान् जी ने सब राक्षसो को मार डाला , कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गये ।। 3 ।।
फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा । वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओ को साथ लेकर चला । उसे आते देखकर हनुमान् जी ने एक वृक्ष ( हाथ मे ) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि से गर्जना की ।। 4 ।।

 दोहा – 18
 
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।।
 
भावार्थः- उन्होने सेना मे से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल मे मिला दिया । कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु ! बन्दर बहुत ही बलवान् है ।। 18 ।।
 
 सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ।। 1 ।।
 
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने ( अपने जेठे पुत्र ) बलवान् मेघनाद को भेजा । ( उससे कहा की – ) हे पुत्र ! मारना नही उसे बाँध लाना । उस बंदर को देखा जाए कि कहाँ का है ।। 1 ।।
 
इंद्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला । भाई का मारा जाना सु उसे क्रोध हो आया । हनुमान् जी ने देखा कि अब की भयानक योद्धा आया है । तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े ।। 3 ।।
 
 अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ।। 3 ।।
 
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई ।। 4 ।।
 
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया ।। 5 ।।
 
भावार्थः- उन्होने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और लंकेश्र्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया । ( रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया । ) उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे , उनको पकड़-पकड़कर हनुमान् जी अपने शरीर से मसलने लगे ।। 3 ।।
 
उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे । ( लड़ते हुए वे ऐसे मालू होते थे ) मानो दो गजराज भिड़ गए हो । हनुमान् जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े । उसको क्षणभर के लिए मूर्छा आ गई ।। 4 ।।
 
फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परन्तु पवन के पुत्र उससे जीते नही जाते ।। 5 ।।
 
 दोहा – 19
 
ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।।
 
भावार्थः- अंत मे उसने ब्रह्मास्त्र का संधान ( प्रयोग ) किया , तब हनुमान् जी ने मन मे विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नही मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी ।। 19 ।।
 
 ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ।। 1 ।।
 
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- उसने हनुमान् जी को ब्रह्मबाण मारा, ( जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े ) परंतु गिरते समय भी उन्होने बहुत सी सेना मार डाली । जब उसने देखा कि हनुमान् जी मूर्छित हो गए है, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गय़ा ।। 1 ।।
 
( शिवाजी कहते है – ) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी ( विवेकी ) मनुष्य संसार ( जन्म-मरण ) के बंधन को काट डालते है, उनका दूत कहीं बंधन मे आ सकता है ? किन्तु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान् जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया ।। 2 ।।
 
 कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ।। 3 ।।
 
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ।। 4 ।।
 
भावार्थः- बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए ( तमाशा देखने के लिए ) सब सभा मे आए । हनुमान् जी ने जाकर रावण की सभी देखी । उसकी अत्यंत प्रभुता ( ऐश्र्वर्य ) कुछ कही नही जाती ।। 3 ।।
 
देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे है । ( उसका रूख देख रहे है ) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान् जी ने मन मे जरा भी डर नही हुआ । वे ऐसे निःशंख खड़े रहे , जैसे सर्पो के समूह मे गरूड़ निःशंख निर्भय ) रहते है ।। 4 ।।
 
 दोहा – 20
 
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ।। 20 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा । फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके ह्रदय मे विषाद उत्पन्न हो गया ।। 20 ।।
 
 कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही ।। 1 ।।
 
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया ।। 2 ।।
 
भावार्थः- लंकापति रावण ने कहा – रे वानर ! तू कौन है ? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला ? क्या तूने कभी मुझे कानो से नही सुना ? रे शठ ! मै तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूँ ।। 1 ।।
 
तूने किस अपराध से राक्षसो को मारा ? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नही है ? ( हनुमान् जी ने कहा – ) हे रावण ! सुन, जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्मांडो के समूहो की रचना करती है ।। 2 ।।
 
 जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ।। 3 ।।
 
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा ।। 4 ।।
 
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली ।। 5 ।।
 
भावार्थः- जिनके बल से हे दशशीश ! ब्रह्मा , विष्णु, महेश ( क्रमशः ) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते है, जिनके बल से सहस्रमुख ( फणो ) वाले शेष जी पर्वत और वन सहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते है ।। 3 ।।
 
जो देवताओ की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते है और जो तुम्हारे जेस मूर्खो को शिक्षा देने वाले है, जिन्होने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओ के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया ।। 4 ।।
 
जिन्होने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे ।। 5 ।।
 
 दोहा – 21
 
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ।। 21 ।।
 
भावार्थः- जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम ( चोरी से ) हर लाए हो, मै उन्ही का दूत हूँ ।। 21 ।।
 
 जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ।। 1 ।।
 
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- मै तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था । हनुमान् जी  के ( मार्मिक ) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी ।। 1 ।।
 
हे स्वामी मुझे भूख लगी थी, इसलिए मैने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े । हे ( निशाचर के ) मालिक ! देह सबको परम प्रिय है । कुमार्ग पर चलने वाले दुष्ट राक्षस जब मुझे मारने लगे ।। 2 ।।
 
 जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ।। 3 ।।
 
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- तब जिन्होने मुझे मारा , उनको मैने भी मारा । उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया ( किन्तु ) मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नही है । मै तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ ।। 3 ।।
 
हे रावण ! मै हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो । तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भम्र को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो ।। 4 ।।
 

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै ।। 5 ।।
 
भावार्थः- जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो ।। 5 ।।
 
 दोहा – 22
 
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ।। 22 ।।
 
भावार्थः- खर के शत्रु श्री रघुनाथ जी शरणागतो  के रक्षक और दया के समुन्द्र है । शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हे अपनी शरण मे रख लेंगे ।। 22 ।।
 
 राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ।। 1 ।।
 
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- तुम श्री राम जी के चरण कमलो को ह्रदय मे धारण करो और लंका का अचल राज्य करो । ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है । उस चन्द्रमा मे तुम कलंक न बनो  ।। 1 ।।
राम नाम के बिना वाणी शोभा नही पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो । हे देवताओ के शत्रु ! सब गहनो से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ो के बिना ( नंगी ) शोभा नही पाती ।। 2 ।।


राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ।। 3 ।।
 
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।। 4 ।।
 
भावार्थः- रामविमुख पुरूष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसकी पाना न पाने के समान है । जिन नदियो के मूल मे कोई जलस्त्रोत नही है । ( अर्थात् जिन्हे केवल बरसात ही आसरा है ) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती है।
 
हे रावण ! सुनो, मै प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नही है । हजारो शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नही बचा सकते ।। 4 ।।
 
 दोहा – 23
 
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।।
 
भावार्थः- मोह ही जिनका मूल है ऐसे ( अज्ञानजनित ) , बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुन्द्र भगवान् श्री रामचन्द्रं जी का भजन करो ।।
 
 जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ।। 1 ।।
 
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- यद्यपि हनुमान् जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण हँसकर बोला कि हमे यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरू मिला ! ।। 1 ।।
 
रे दुष्ट ! तेरी मृत्यु निकट आ गई है । अधम ! मुझे शिक्षा देने चला है । हनुमान् जी ने कहा – इससे उलटा ही होगा ( अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नही ) । यह तेरा मतिभ्रम ( बुद्धि का फेर ) है, मैने प्रत्यक्ष जान लिया है ।। 2 ।।


 
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ।। 3 ।।
 
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई ।। 4 ।।
 
सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर ।। 5 ।।
 
भावार्थः- हनुमान् जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया और बोला – अरे ! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यो नही हर लेते ? सुनते ही राक्षस उन्हे मारने दौड़े उसी समय मंत्रियो के साथ विभीषण जी वहाँ आ पहुँचे ।। 3 ।।
 
उन्होने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नही चाहिए, यह नीति के विरूद्ध है । हे गोसाई । कोई दूसरा दंड दिया जाए । सबने कहा – भाई ! यह सलाह उत्तम है ।। 4 ।।
 
यह सुनते ही रावण हँसकर बोला – अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज दिया जाए ।। 5 ।।
 
 दोहा – 24
 
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ।। 24 ।।
 
भावार्थः- मै सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है । अतः तेल मे कपड़ा डुबोकर उसे उसकी पूँछ मे बाँधकर फिर आग लगा दो ।। 24 ।।
 
 पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ।। 1 ।।
 
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ ( अपने स्वामी के पास ) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा । जिसकी इसने बहुत बड़ाई की है , मै जरा उनकी प्रभुता तो देखूँ !  ।। 1 ।।
 
यह वचन सुनते ही हनुमान् जी मन मे मुस्कुराए मै जान गया , सरस्वती जो सहायक हुई है । रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही तैयारी करने लगे ।। 2 ।।


 
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ।। 3 ।।
 
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता ।। 4 ।।
 
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( पूँछ के लपेटने मे इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि ) नगर मे कपड़ा, घी और तेल नही रह गया । हनुमान् जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गई ( लम्बी हो गई ) । नगरवासी लोग तमाशा देखने आए । वे हनुमान् जी को पैर से ठोकर मारते है और उनकी हँसी करते है ।। 3 ।।
 
ढोल बजते है, सब लोग तालियाँ पीटते है । हनुमान् जी को नगर मे फिराकर, फिर पूँछ मे आग लगा दी । अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान् जी तुरन्त ही बहुत छोटे रूप मे हो गए ।। 4 ।।
और बंधन से निकलकर वे सोने की अटारियो पर जा चढ़े । उनको देखकर राक्षसो की स्त्रियाँ भयभीत हो गई ।। 5 ।।
 
 दोहा – 25
 
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्ज कपि बढ़ि लाग अकास ।। 25 ।।
 
भावार्थः- उस समय भगवान् की प्रेरणा से उनचासो पवन चलने लगे । हनुमान् जी अट्टहास करके गर्जे और बढ़कर आकाश से जा लगे ।। 25 ।।
 
 देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला ।। 1 ।।
 
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई ।। 2 ।।
 
भावार्थः- देह बड़ी विशाल, परन्तु बहुत ही हल्की ( फुर्तीली ) है । वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते है । नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए है । अग की करोड़ो भंयकर लपटे झपट रही है ।। 1 ।।
 
हाय बप्पा ! हाय मैया ! इस अवसर पर हमे कौन बचाएगा ? चारो और यही पुकार सुनाई पड़ रही है । हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नही है , वानर का रूप धरे कोई देवता है ! ।। 2 ।।
 

 
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ।। 3 ।।
 
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है । हनुमान् जी ने एक ही क्षण मे सारा नगर जला डाला । एक विभीषण का घर नही जलाया ।। 3 ।।
 
( शिवाजी कहते है – ) हे पार्वती ! जिन्होने अग्नि को बनाया, हनुमान् जी उन्ही के दूत है । इसी कारण वे अग्नि से नही जले । हनुमान् जी ने उलट-पलटकर सारी लंका जला दी । फिर वे समुन्द्र मे कूद पड़े ।। 4 ।।
 
 पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ।। 26 ।।
 
भावार्थः- पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान् जी श्री जानकी जी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए ।। 26 ।।
 
 मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ ।। 1 ।।
 
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( हनुमान् जी ने कहा – ) हे माता ! मुझे कोई चिन्ह्र ( पहचान ) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था । तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी । हनुमान् जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया ।। 1 ।।
 
( जानकी जी ने कहा- ) हे तात ! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना-हे प्रभु ! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम है ( आपको किसी प्रकार की कामना नही है ) , तथापि दीनो ( दुःखियो ) पर दया करना आपका विरद है ( और मै दीन हूँ ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए ।। 2 ।।
 
 तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ।। 3।।
 
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना ।।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे तात! इंद्रपुत्र जयंत की कथा ( घटना ) सुनाना और प्रभु को उसके बाण का प्रताप समझाना ( स्मरण कराना ) । यदि महीने भर मे नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएँगे ।। 3 ।।
हे हनुमान् ! कहो, मै किस प्रकार प्राण रखूँ ! हे तात ! तुम भी अब जाने को कह रहे हो । तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी । फिर मुझे वही दिन और वही रात ।। 4 ।।
 
 दोहा – 27
 
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ।। 27 ।।
 
भावार्थः-  हनुमान् जी ने जानकी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलो मे सिर नवाकर श्री राम जी के पास गमन किया ।। 27 ।।
 
 चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ।। 1 ।।
 
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा  ।। 2 ।।
 
भावार्थः- चलते समय उन्होने महाध्वनि से भारी गर्जन किया , जिसे सुनकर राक्षसो की स्त्रियो के गर्भ गिरने लगे । समुन्द्र लाँघकर वे इस पार आए और उन्होने वानरो को किलकिला शब्द सुनाया ।। 1 ।।
 
हनुमान् जी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरो ने अपना नया जन्म समझा । हनुमान् जी का मुख प्रसन्न है और शरीर मे तेज विराजमान है, ( जिससे उन्होने समझ लिया कि ) ये श्री रामचन्द्रजी का कार्य कर आए है ।। 2 ।।


 
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा ।। 3 ।।
 
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।।
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सब हनुमान् जी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो । सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास ( वृत्तांत ) पूछते-पूछते हुए श्री रघुनाथ जी के पास चले ।। 3 ।।
 
तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल ( या मधु और फल ) खाए । जब रखवाले बरजने लगे, तब घूँसो की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे ।। 4 ।।
 
 दोहा – 28
 
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।।
 
भावार्थः- उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे है । यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए है ।। 28 ।।
 
 जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा ।। 1 ।।
 
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे ? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन मे विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर आ गए ।। 1 ।।
 
( सबने आकर सुग्रीव के चरणो से सिर नवाया । कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले । उन्होने कुशल पुछी, ( तब वानरो ने उत्तर दिया – ) आपके चरणो के दर्शन से सब कुशल है । श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ ( कार्य मे विशेष सफलता हुई है ) ।। 2 ।।
 

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ।। 3 ।।
 
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरो के प्राण बचा लिए । यह सुनकर सुग्रीव जी हनुमान् जी से फिर मिले और सब वानरो समेत श्री रघुनाथ जी के पास चले ।। 3 ।।
श्री राम जी ने जब वानरो को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन मे विशेष हर्ष हुआ । दोनो भाई स्फटिक शिला पर बैठे थे । सब वानर जाकर उनके चरणो पर गिर पड़े ।।
 
 प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ।। 29 ।।
 
भावार्थः- दया की राशि श्री रघुनाथ जी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और  कुशल पूछी । ( वानरो ने कहा ) – हे नाथ ! आपके चरण कमलो के दर्शन पाने से अब कुशल है ।। 29 ।।
 
 जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ।। 1 ।।
 
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू ।। 2 ।।
 
भावार्थः- जाम्बवान् ने कहा – हे रघुनाथ जी ! सुनिए । हे नाथ ! जिस पर आप दया करते है, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है । देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते है ।। 1 ।।
 
वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणो का समुन्द्र बन जाता है । उसी का सुन्दर यश तीनो लोको मे प्रकाशित होता है । प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ । आज हमारा जन्म सफल हो गया ।। 2 ।।
 

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए ।। 3 ।।
 
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखो से भी वर्णव नही किया जा सकता । तब जाम्बवान् ने हनुमान् जी ने सुन्दर चरित्र ( कार्य ) श्री रघुनाथ जी को सुनाए ।। 3 ।।
 
( वे चरित्र ) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचन्द्र जी के मन को बहुत ही अच्छे लगे । उन्होने हर्षित होकर हनुमान् जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा – हे तात ! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणो की रक्षा करती है ? ।। 4 ।।
 
 दोहा – 30
 
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।। 30 ।।
 
भावार्थः- ( हनुमान् जी ने कहा – ) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है , आपका ध्यान ही किंवाड़ है । नेत्रो को अपने चरणो मे लगाए रहती है, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से ? ।। 30 ।।
 
 चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी ।। 1 ।।
 
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- चलते समय उन्होने मुझे चूड़ामणि ( उतारकर ) दी । श्री रघुनाथ जी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया । ( हनुमान् जी ने फिर कहा ) हे नाथ ! दोनो नेत्रो मे जल भरकर जानकी जी ने मुझसे कुछ वचन कहे ।। 1 ।।
 
छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना ( और कहना कि ) आप दीनबंधु है, शरणागत के दुःखो को हरने वाले है और मै मन, वचन और कर्म से आपके चरणो की अनुरागिणी हूँ । फिर स्वामी ( आप ) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया ? ।। 2 ।।


 
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ।। 3 ।।
 
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी ।। 4 ।।
 
सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( हाँ ) एक दोष मै अपना ( अवश्य ) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नही चले गए, किंतु हे नाथ !  यह तो नेत्रो का अपराध है जो प्राणो के निकलने मे हठपूर्वक बाधा देते है ।। 3 ।।
 
विरह अग्नि है , शरीर रूई है और श्र्वास पवन है, इस प्रकार ( अग्नि और पवन का संयोग होने से ) यह शरीर क्षणमात्र मे जल सकता है, परन्तु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर ( सुखी होने के लिए ) जल ( आँसू ) बरसाते है, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नही पाती ।। 4 ।।
 
सीता जी विपत्ति बहुत बड़ी है । हे दीनदयालु ! वह बिना कही रही अच्छी है ( कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा ) ।। 5 ।।
 
 दोहा  – 31
 
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ।। 31 ।।
 
भावार्थः- हे करूणानिधान ! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है । अतः हे प्रभु! तुरन्त चलिए और अपनी भुजाओ के बल से दुष्टो के दल को जीतकर सीता जी को ले आइए ।। 31 ।।
 
 सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ।। 1 ।।
 
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- सीता जी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रो मे जल भर आया ( और वे बोले – ) मन , वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति ( मेरा ही आश्रय ) है , उसे क्या स्वप्न मे भी विपत्ति हो सकती है ? ।। 1 ।।
 
हनुमान् जी ने कहा – हे प्रभु ! विपत्ति तो वही ( तभी ) है जब आपका भजन-स्मरण न हो । हे प्रभु ! राक्षसो की बात ही कितनी है ? आप शत्रु को जीतकर जानकी जी को ले आवेंगे ।। 2 ।।


 
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा ।। 3 ।।
 
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता ।। 4 ।।
 
.भावार्थः- ( भगवान् कहने लगे ) हे हनुमान् ! सुनो , तेरे समान मेरा उपकारी देवता , मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नही है । मै तुम्हारा प्रत्युपकार ( बदले मे उपकार ) तो क्या करूँ , मेरा मन भी तुम्हारे सामने नही हो सकता ।। 3 ।।
 
हे पुत्र ! सुन, मैने मन मे विचार करके देख लिया कि मै तुझमे उऋण नही हो सकता । देवताओ के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमान् जी को देख रहे है । नेत्रो मे प्रेमाश्रुओ का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है ।। 4 ।।
 
 दोहा – 32
 
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ।। 32 ।।
 
भावार्थः- प्रभु के वचन सुनकर और उनके ( प्रसन्न ) मुख तथा ( पुलकित ) अंगो को देखकर हनुमान् जी हर्षित हो गए और प्रेम मे विकल होकर ‘ हे भगवान् ! ’ मेरी रक्षा करो , रक्षा करो कहते हुए श्री राम जी के चरणो मे गिर पड़े ।। 32 ।।
 
 बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ।। 1 ।।
 
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते है, परन्तु प्रेम मे डूबे हुए हनुमान् जी को चरणो से उठना सुहाता नही । प्रभु का करकमल हनुमान् जी के सिर पर है । उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए ।। 1 ।।
 
फिर मन को सावधान करके शंकर जी अत्यंत सुन्दर कथा कहने लगे – हनुमान् जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया ।। 2 ।।


 
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना ।। 3 ।।
 
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ।। 4 ।।
 
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ।। 5 ।।
 
भावार्थः- हे हनुमान ! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया ? हनुमान् जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमान रहित वचन बोले ।। 3 ।।
 
बंदर का बस, यही बड़ा पुरूषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है । मैने जो समुन्द्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला ।। 4 ।।
 
यह सब तो हे श्री रघुनाथ जी ! आप ही का प्रताप है । हे नाथ ! इसमे मेरी प्रभुता कुछ भी नही है ।। 5 ।।
 
 
 दोहा – 33
 
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।
 
भावार्थः- हे प्रभु ! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठिन नही है । आपके प्रभाव से रूई ( जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है ) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है ( अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है ) ।। 33 ।।
 
 नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ।। 1 ।।
 
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति करके दीजिए । हनुमान् जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी ! तब प्रभु श्री रामचंद्र जी ने ‘एवमस्तु’ ( ऐसा ही हो ) कहा ।। 1 ।।
 
हे उमा ! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया । उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नही सुहाती । यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके ह्रदय मे आ गया, वही श्री रघुनाथ जी के चरणो की भक्ति पा गया ।। 2 ।।
 

 
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा ।। 3 ।।
 
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे – कृपालु आनंदकंद श्री राम जी की जय हो जय हो, जय हो ! तब श्री रघुनाथ जी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा – चलने की तैयारी करो ।। 3 ।।
 
अब विलंब किस कारण किया जाए । वानरो को तुरंत आज्ञा दो । ( भगवान् की ) यह लीला ( रावणवध की तैयारी ) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले ।। 4 ।।
 
 दोहा – 34
 
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ।। 34 ।।
 
भावार्थः- वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरो को बुलाया, सेनापतियो के समूह आ गए । वानर-भालुओ के झुंड अनेक रंगो के है और उनमे अतुलनीय बल है ।। 34 ।।
 
 
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना ।। 1 ।।
 
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- वे प्रभु के चरण कमलो मे सिर नवाते है । महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे है । श्री रामजी ने वानरो की सारी सेना देखी । तब कमल नेत्रो से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली ।। 1 ।।
 
राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए । तब श्री राम जी ने हर्षित होकर प्रस्थान किया । अनेक सुन्दर और शुभ शकुन हुए ।। 2 ।।
 

 
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ।। 3 ।।
 
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- जिनकी कीर्ति सब मंगलो से पूर्ण है , उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है ( लीला की मर्यादा है ) । प्रभु का प्रस्थान जानकी जी ने भी जान लिया । उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे ( कि श्री राम जी आ रहे है ) ।। 3 ।।
 
जानकी जी को जो-जो शकुन होते थे , वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए । सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है ? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे है ।। 4 ।।
 

 
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ।। 5 ।।
 
भावार्थः- नख ही जिनके शस्त्र है, वे इच्छानुसार ( सर्वत्र बेरोक-टोक ) चलने वाले रीछ-वानर पर्वतो और वृक्षो को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे है । वे सिंह के समान गर्जना कर रहे है । ( उनके चलने और गर्जन से ) दिशाओ के हाथी विचलित होकर चिंग्घाड़ रहे है ।। 5 ।।
 
 चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ।। 1 ।।
 
भावार्थः- दिशाओ के हाथी चिंग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गए ( काँपने लगे ) और समुन्द्र खलबला उठे । गंधर्व , देवता , मुनि , नाग , किन्नर सब के सब मन मे हर्षित हुए ‘ कि अब हमारे दुख टल गए । अनेको करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे है और करोड़ो ही दौड़ रहे है । प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचन्द्र जी की जय हो , ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहो को गा रहे है ।। 1 ।।


 
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।।
 
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- उदार ( परम श्रेष्ठ एवं महान् ) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नही सह सकते , वे बार-बार मोहित हो जाते ( घबड़ा जाते ) है और पुनः पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतो से पकड़ते है । ऐसा करते ( अर्थात् बार-बार दाँतो को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीचते हुए ) वे कैसे शोभा दे रहे है मानो श्री रामचन्द्र जी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हो ।। 2 ।।
 
 दोहा – 35
 
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।।
 
भावार्थः- इस प्रकार कृपिधान श्री राम जी समुन्द्र तट पर जा उतरे । अनेको रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे ।। 35 ।।
 
 उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।। 1 ।।
 
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- वहाँ ( लंका मे ) जब से हनुमान् जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे । अपने-अपने घरो मे सब विचार करते है कि अब राक्षस कुल की रक्षा ( का कोई उपाय ) नही है ।। 1 ।।
 
जिससे दूत का बल वर्णन नही किया जा सकता , उसके स्वयं नगर मे आने पर कौन भलाई है ( हम लोगो की बड़ी बुरी दशा होगी ) दूतियो से नगरवासियो के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई ।। 2 ।।


रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु ।। 3 ।।
 
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- वह एकांत मे हाथ जोड़कर पति ( रावण )  के चरणो मे लगी और नीतिरस मे पगी हुई वाणी बोली – हे प्रियतम ! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए । मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर ह्रदय मे धारण कीजिए ।। 3 ।।
 
जिनके दूत की करनी का विचार करते ही राक्षसो की स्त्रियो के गर्भ गिर जाते है, हे प्यारे स्वामी ! यदि भला चाहते है, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए ।। 4 ।।
 

 
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ।। 5 ।।
 
भावार्थः- सीता आपके कुल रूपी कमलो के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है । हे नाथ ! सुनिए, सीता को दिए ( लौटाए ) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नही हो सकता ।। 5 ।।
 
 दोहा – 36
 
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ।। 36 ।।
 
भावार्थः- श्री रामजी के बाण सर्पो के समूह के समान है और राक्षसो के समूह मेढक के समान । जब तक वे इन्हे ग्रस नही लेते ( निगल नही जाते ) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए ।। 36 ।।
 
 श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा ।। 1 ।।
 
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानो से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा ( और बोला – ) स्त्रियो का स्वभा सचमुच ही बहुत डरपोक होता है । मंगल मे भी भय करती हो । तुम्हारा मन ( ह्रदय ) बहुत ही कच्चा ( कमजोर ) है ।। 1 ।।
 
यदि वानरो की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे । लोकपाल भी जिसके डर से काँपते है, उसकी स्त्री डरती हो , यह बड़ी हँसी की बात है ।। 2 ।।
 

 
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।। 3 ।।
 
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ।। 4 ।।
 
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही ।। 5 ।।
 
भावार्थः- रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे ह्रदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर ( अधिक स्नेह दर्शाकर ) वह सभा मे चला गया । मंदोदरी ह्दय मे चिन्ता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए ।। 3 ।।
 
ज्यों ही वह सभा मे जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुन्द्र के उस पार आ गई है, उसने मंत्रियो से पूछा कि उचित सलाह कहिए ( अब क्या करना चाहिए ? ) तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किए रहिए ( इसमे सलाह की कौन सी बात है ? ) ।। 4 ।।
 
आपने देवताओ और राक्षसो को जीत लिया , तब तो कुछ श्रम ही नही हुआ । फिर मनुष्य और वानर किस गिनती मे है ? ।। 5 ।।
 
 दोहा – 37
 
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ।। 37 ।।
 
भावार्थः- मंत्री , वैद्य और गूरू – ये तीन यदि ( अप्रसन्नता के ) भय या ( लाभ की ) आशा से ( हित की बात न कहकर ) प्रिय बोलते है ( ठकुर सुहाती कहने लगते है, ) तो ( क्रमशः ) राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है ।। 37 ।।
 
 सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ।। 1 ।।
 
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरुप कहउँ हित ताता ।। 2 ।।
 
भावार्थः-  रावण के लिए भी वही सहातया ( संयोग ) आ बनी है । मंत्री उसे सुना-सुनाकर स्तुति करते है । ( इसी समय ) अवसर जानकर विभीषण जी आए । उन्होने बड़े भाई के चरणो मे सिर नवाया ।। 1 ।।
 
फिर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोले – हे कृपाल जब आपने मुझमे बात ( राय ) पूछी ही है, तो हे तात ! मै अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ ।। 2 ।।
 

 
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाई ।। 3 ।।
 
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ।। 4 ।।
 
भावार्थः- जो मनुष्य अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी ! परस्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की तरह त्याग दे ।। 3 ।।
 
चौदहो भुवनो का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवो से वैर करके ठहर नही सकता ( नष्ट हो जाता है ) जो मनुष्य गुणो का समुन्द्र और चतुर हो , उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यो न हो, तो भी कोई भला नही कहता ।। 4 ।।
 
 दोहा – 38
 
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ।। 38 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! काम, क्रोध, मद और लोभ – ये सब नरक के रास्ते है , इन सबको छोड़कर श्री राम चन्द्रजी को भजिए , जिन्हे संत ( सत्पुरूष ) भजते है ।। 38 ।।
 
 तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता ।। 1 ।।
 
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे तात ! राम मनुष्यो के ही राजा नही है । वे समस्त लोको के स्वामी और काल के भी काल है । वे ( सम्पूर्ण ऐश्र्वर्य , यश , श्री , वैराग्य , एवं ज्ञान के भंडार ) भगवान् है, वे निरामय ( विकाररहित ) , अजन्मे , व्यापक , अजेय , अनादि और अनन्त ब्रह्म है ।। 1 ।।
 
उन कृपा के समुन्द्र भगवान् ने पृथ्वी , ब्राह्मण, गो और देवताओ का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है । हे भाई ! सुनिए, वे सेवको को आनन्द देने वाले , दुष्टो के समूह का नाश करने वाले वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले है ।। 2 ।।

 ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही ।। 3 ।।
 
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ।। 4 ।।
 
भावार्थः- वैर त्यागकर उन्हे मस्तक नवाइए । वे श्री रघुनाथ जी शरणागत का दुःख नाश करने वाले है । हे नाथ ! उन प्रभु ( सर्वेश्र्वर ) को जानकी जी दे दीजे और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री राम जी को भजिए ।। 3 ।।
 
जिसे संपूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप लगा है , शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नही करते । जिसका नाम तीनो तापो का नाश करने वाला है , वे ही प्रभु ( भगवान् ) मनुष्य रूप मे प्रकट हुए है । हे रावण ! हृदय मे यह समझ लीजिए ।। 4 ।।
 
 दोहा – 39
 
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ।। 39 (क) ।।
 
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ।। 39 (ख) ।।
 
भावार्थः- हे दशशीश ! मै बार-बार आपके चरण लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री राम जी का भजन कीजिए ।। 39 क ।।
मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है । हे तात ! सुन्दर अवसर पाकर मैने तुरन्त ही वह बात प्रभु ( आप ) से कह दी ।। 39 ख ।।
 
 माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना ।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ।। 1 ।।
 
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- माल्यवान् नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था । उसने उन ( विभीषण ) के वचन सुनकर बहुत सुख माना ( और कहा – ) हे तात ! आपके छोटे भाई नीति विभूषण ( नीति को भूषण रूप मे धारण करने वाले अर्थात् नीतिमान् ) है । विभूषण जो कुछ कह रहे है उसे हृदय मे धारण कर लीजिए ।। 1 ।।
 
( रावन ने कहा – ) ये दोनो मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे है । यहाँ कोई है ? इन्हे दूर करो ना ! तब माल्यवान् तो घर लौट गया और विभीषण जी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे ।। 2 ।।
 

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं ।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।। 3 ।।
 
तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ।।
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते है कि सुबुद्धि ( अच्छी बुद्धि ) और कुबुद्धि ( खोटि  बुद्धि ) सबके हृदय मे रहती है, जहाँ सुबुद्धि है , वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ ( सुख की स्थिति ) रहती है और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम मे विपत्ति ( दुःख ) रहती है ।। 3 ।।
 
आपके हृदय मे उलटी बुद्धि आ बसी है । इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे है । जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि ( के समान ) है , उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है ।। 4 ।।
 
 दोहा – 40
 
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ।। 40 ।।
 
भावार्थः- हे तात ! मै चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ ( विनती करता हूँ ) कि आप मेरा दुलार रखिए ( मुख बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए ) श्री राम जी को सीता जी दे दीजिए , जिसमे आपका अहित न हो ।। 40 ।।
 
 बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ।। 1 ।।
 
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही ।। 2 ।।
 
भावार्थः- विभीषण ने पंडितो , पुराणो और वेदो द्वारा सम्मत ( अनुमोदित ) वाणी से नीति बखानकर कही । पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दूष्ट ! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है ।। 1 ।।
 
अरे मूर्ख ! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ ( अर्थात् मेरे ही अन्न से पल रहा है ) पर हे मूढ़ ! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है । अरे दुष्ट ! बता न, जगत् मे ऐसा कौन है जिसे मैने अपनी भुजाओ के बल से न जीता हो ? ।। 2 ।।


 
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा ।। 3 ।।
 
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ।। 4 ।।
 
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ।। 5 ।।
 
भावार्थः- मेरे नगर मे रहकर प्रेम करता है तपस्वियो पर । मूर्ख ! उन्ही से जा मिल और उन्ही को नीति बता । ऐसा कहकर रावण ने उन्हे लात मारी , परन्तु छोटे भाई विभीषण ने ( मारने पर भी ) बार-बार उसके चरण ही पकड़े ।। 3 ।।
 
( शिवाजी कहते है ) – हे उमा ! संत की यही बड़ी ( महिमा ) है कि वे बुराई करने पर भी ( बुराई करने वाले की ) भलाई ही करते है । ( विभीषणजी ने कहा – ) आप मेरे पिता के समान है , मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया , परन्तु हे नाथ ! आपका भला श्री राम जी को भजने मे ही है ।। 4 ।।
 
( इतना कहकर ) विभीषण अपने मंत्रियो को साथ लेकर आकाश मार्ग मे गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे ।। 5 ।।
 
 दोहा – 41
 
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ।। 41 ।।
 
भावार्थः- श्री रामजी संकल्प एवं  ( सर्वसमर्थ ) प्रभु है और ( हे रावण ) तुम्हारी सभा काल के वश है । अतः मै अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना ।। 41 ।।
 
 अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी ।। 1 ।।
 
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यो ही चले , त्यो ही सब राक्षस आयुहीन हो गए । ( उनकी मृत्यु निश्र्चित हो गई ) । ( शिवजी कहते है – ) हे भवानी ! साधु का अपमान तुरन्त ही संपूर्ण कल्याण की हानि ( नाश ) कर देता है ।। 1 ।।
 
रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा , उसी क्षण वह अभागा वैभव ( ऐश्र्वर्य ) से हीन हो गया । विभीषण जी हर्षित होकर मन मे अनेको मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथ जी के पास चले ।। 2 ।।


 
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी ।। 3 ।।
 
जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- ( वे सोचते जाते थे – ) मै जाकर भगवान् के कोमल और लाल वर्ण के सुन्दर चरण कमलो के दर्शन करूँगा , जो सेवको को सुख देने वाले है, जिन चरणो का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गई और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले है ।। 3 ।।
 
जिन चरणो को जानकी जी ने हृदय मे धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर ( उसे पकड़ने को ) दौड़ थे और जो चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर मे विराजते है, मेरा अहोभाग्य है कि उन्ही को आज मै देखूँगा ।। 4 ।।
 
 दोहा – 42
 
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ।। 42 ।।
 
भावार्थः- जिन चरणो की पादुकाओ मे भरत जी ने अपना मन लगा रखा है , अहा ! आज मै उन्ही चरणो को अभी जाकर इन नेत्रो से देखूँगा ।। 42 ।।
 
 एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ।। 1 ।।
 
ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई ।। 2 ।।
 
भावार्थः- इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुन्द्र के इस पार ( जिधर श्री रामचन्द्र जी की सेना थी ) आ गए । वानरो ने विभीषण को आते देखा तो उन्होने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है ।। 1 ।।
 
उन्हे ( पहरे पर ) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए । सुग्रीव ने ( श्री राम जी के पास जाकर ) कहा – हे रघुनाथ जी ! सुनिए , रावण का भाई ( आप से ) मिलने आया है ।। 3 ।।


 
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया ।। 3 ।।
 
भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी ।। 4 ।।
 
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना ।। 5 ।।
 
भावार्थः- प्रभु श्री राम जी ने कहा – हे मित्र ! तुम क्या समझते हो ( तुम्हारी क्या राय है ) ? वानरराज सुग्रीव ने कहा – हे महाराज ! सुनिए , राक्षसो की माया जानी नही जाती । यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला न जाने किस कारण आया है ।। 3 ।।
 
( जान पड़ता है ) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इस बाँध रखा जाए । ( श्री राम जी ने कहा – ) हे मित्र ! तुमने नीति तो अच्छी विचारी , परन्तु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना ।। 4 ।।
 
प्रभु के वचन सुनकर हनुमान् जी हर्षित हुए ( और मन ही मन कहने लगे कि ) भगवान् कैसे शरणागतवत्सल ( शरण मे आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले ) है ।। 5 ।।
 
 दोहा – 43
 
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ।। 43 ।।
 
भावार्थः- ( श्री राम जी फिर बोले – ) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण मे आए हुए का त्याग कर रहे है , वे पामर ( क्षुद्र ) है , पापमय है, उन्हे देखने मे भी हानि है ( पाप लगता है ) ।। 43 ।।
 
 कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।। 1 ।।
 
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई ।। 2 ।।
 
भावार्थः- जिसे करोड़ो ब्राह्मणो की हत्या लगी हो, शरण मे आने पर मै उसे भी नही त्यागता । जीव ज्यो ही मेरे सम्मुख होता है, त्यो ही उसको करोड़ो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है ।। 1 ।।
पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नही सुहाता । यदि वह ( रावण का भाई ) निश्र्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था ? ।। 2 ।।


 
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा  ।। 3 ।।
 
जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ।।  4 ।।
 
भावार्थः- जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है । मुझे कपट और छल-छिद्र नही सुहाते । यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है , तब भी हे सुग्रीव । अपने को कुछ भी भय या हानि नही है ।। 3 ।।
 
क्योकि हे सखे ! जगत मे जितने भी राक्षस है , लक्ष्मण क्षणभर मे उन सबको मार सकते है और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मै तो उसे प्राणो की तरह रखूँगा ।। 4 ।।
 
 दोहा -44
 
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत ।। 44 ।।
 
भावार्थः- कृपा के धाम श्री राम जी ने हँसकर कहा – दोनो ही स्थितियो मे उसे ले आओ । तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीव जी कपालु श्री राम जी की जय हो , कहते हुए चले ।। 44 ।।
 
 सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता ।। 1 ।।
 
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन ।। 2 ।।
 
भावार्थः- विभीषणजी को आदर सहित आगे करक वानर फिर वहाँ चले , जहाँ करूणा की खान श्री रघुनाथ जी ने । नेत्रो को आनन्द का दान देने वाले ( अत्यंत सुखद ) दोनो भाइयो को विभीषण जी ने दूर ही देखा ।। 1 ।।
 
फिर शोभा के धाम श्री राम जी को देखकर वे पलक ( मारना ) रोककर ठिठककर ( स्तब्ध होकर ) एकटक देखते ही रह गए । भगवान् की विशाल भुजाएँ है लाल कमल के समान नेत्र है और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है ।। 2 ।।


 
सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता ।। 3 ।।
 
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सिंह के से कंधे है , विशाल वक्षः स्थल ( चौड़ी छाती ) अत्यंत शोभा दे रहा है । असंख्य कामदेवो के मन को मोहित करने वाला मुख है । भगवान् के स्वरूप को देखकर विभीषण जी के नेत्रो मे जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया । फिर मन मे धीरज धरकर उन्होने कोमल वचन कहे ।। 3 ।।
 
हे नाथ ! मै दशमुख रावण का भाई हूँ । हे देवताओ के रक्षक ! मेरा जन्म राक्षस कुल मे हुआ है । मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय है, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है ।। 4 ।।
 
 दोहा – 45
 
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ।। 45 ।।
 
भावार्थः- मै कानो से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव ( जन्म-मरण ) के भय का नाश करने वाले है ! हे दुखियो के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर ! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए ।। 45 ।।
 
 अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ।। 1 ।।
 
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- प्रभु ने उन्हे ऐसा कहकर दंडवत् करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरन्त उठे । विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए । उन्होने अपनी विशाल भुजाओ से पकड़कर उनको ह्दय से लगा लिया ।। 1 ।।
 
छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री राम जी भक्तो के भय को हरने वाले वचन बोले – हे लंकेश ! परिवार सहित अपनी कुशल कहो । तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है ।। 2 ।।


 
खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती ।। 3 ।।
 
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ।। 4 ।।
 
भावार्थः- दिन-रात दुष्टो की मंडली मे बसते हो । ( ऐसी दशा मे ) हे सखे ! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है ? मै तुम्हारी सब रीति ( आचार-व्यवहार ) जानता हूँ । तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हे अनीति नही सुहाती ।। 3 ।।
 
हे तात ! नरक मे रहना वरन् अच्छा है , परन्तु विधाता दुष्ट का संग ( कभी ) न दे । ( विभीषण जी ने कहा – ) हे रघुनाथ जी ! अब आपके चरणो का दर्शन कर कुशल से हूँ , जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है ।। 4 ।।

 
दोहा – 46
 
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ।। 46 ।।
 
भावार्थः- तब तक जीन की कुशल नही और न स्वप्न मे भी उसके मन को शान्ति है , जब तक वह शोक के घर काम ( विषय – कामना ) को छोड़कर श्री राम जी को नही भजता ।। 46 ।।
 
 तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा ।। 1 ।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
 
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ।। 2 ।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
 
भावार्थः- लोभ , मोह , मत्सर ( डाह ) , मद और मान आदि अनेको दुष्ट तभी तक हृदय मे बसते है, जब तक कि धनुष-बाण और कमर मे तरकस धारम किए हुए श्री रघुनाथ जी हृदय मे नही बसते ।। 1 ।।
 
ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओ को सुख देने वाली है । वह ( ममता रूपी रात्रि ) तभी तक जीव के मन मे बसती है , जब प्रभु ( आप ) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नही होता ।। 2 ।।


 
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।। 3 ।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
 
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे श्री राम जी ! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मै कुशल से हूँ , मेरे भारी भय मिट गए । हे कृपालु ! आप जिस पर अनुकूल होते है, उसे तीनो प्रकार के भवशूल ( आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप ) ही व्यापते ।। 3 ।।
 
मै अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ । मैने कभी शुभ आचरण नही किया । जिनका रूप मुनियो के भी ध्यान मे नही आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया ।। 4 ।।
 
 दोहा – 47
 
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज ।। 47 ।।
 
भावार्थः- हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी ! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलो को अपने नेत्रो से देखा ।। 47 ।।
 
 सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही ।। 1 ।।
 
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( श्री राम जी ने कहा – ) हे सखा ! सुनो, मै तुम्हे अपना स्वभाव कहता हूँ , जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वती जी भी जानती है । कोई मनुष्य ( संपूर्ण ) ज़ड़ –चेतन जगत् का द्रोही हो , यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक आ जाए ।। 1 ।।
 
और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याद दे तो मै उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ । माता-पिता , भाई ,पुत्र , स्त्री , शरीर , धन , घर , मित्र और परिवार ।। 2 ।।


 
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं ।। 3 ।।
 
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें ।। 4 ।।
 
भावार्थः- इस सबको ममत्व रूपी तागो को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणो मे बाँध देता है । ( सारे सांसारिक संबंधो का केन्द्र मुझे बना लेता है ) जो समद्रशी है , जिसे कुछ इच्छा नही है और जिसके मन मे हर्ष , शोक और भय नही है ।। 3 ।।
 
ऐसा सज्जन मेरे हृदय मे केसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय मे धन बसा करता है । तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय है । मै और किसी के निहोरे से ( कृतज्ञतावश ) देह धारण नही करता ।। 4 ।।
 
 सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ।। 48 ।।
 
भावार्थः- जो सगुण ( साकार ) भगवान् के उपासक है, दूसरे के हित मे लगे रहते है, नीति और नियमो मे दृढ़ है और जिन्हे ब्राह्मणो के चरणो मे प्रेम है , वे मनुष्य मेरे प्राणो के समान है ।। 48 ।
 
 सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ।। 1 ।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
 
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ।। 2 ।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
 
भावार्थः- हे लंकापति ! सुनो , तुम्हारे अन्दर उपर्युक्त सब गुण है । इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो । श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरो के समूह कहने लगे – कृपा के समूह श्री राम जी की जय हो ।। 1 ।।
 
प्रभु की वाणी सुनते है और उसे कानो के लिए अमृत जानकर विभीषण जी अघाते नही है । वे बार-बार श्री राम जी के चरण कमलो को पकड़ते है अपार प्रेम है , हृदय मे समाता नही है ।। 2 ।।


 
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ।। 3 ।।
 
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा ।। 4 ।।
 
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ।। 5 ।।
 
भावार्थः- ( विभीषण जी ने कहा – ) हे देव ! हे चराचर जगत् के स्वामी ! हे शरणागत के रक्षक ! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले । सुनिए , मेरे हृदय मे पहले कुछ वासना थी । वह प्रभु के चरणो की प्रीति रूपी नदी मे बह गई ।। 3 ।।
 
अब तो हे कृपालु ! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए । “ एवमस्तु ” ( ऐसा ही हो ) कहकर रणधीर प्रभु श्री राम जी ने तुरन्त ही समुन्द्र का जल माँगा ।। 4 ।।
 
( और कहा – ) हे सखा ! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नही है, पर जगत् मे मेरा दर्शन अमोघ है ( वह निष्फल नही जाता ) ऐसा कहकर श्री राम जी ने उनको राज तिलक कर दिया । आकाश से पुष्पो की अपार वृष्टि हुई ।। 5 ।।
 
 रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।
 
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।।
 
भावार्थः- श्री राम जी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि मे, जो अपनी ( विभीषण की ) श्र्वास ( वचन ) रूपी पवन से प्रचन्ड हो रही थी , जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया ।। 49 क ।।
 
शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसो सिरो की बलि देने पर दी थी , वही संपत्ति श्री रघुनाथ जी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी ।। 49 ख ।।

 अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ।। 1 ।।
 
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहि त उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक  ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते है , वे बिना सींग-पूँछ के पशु है । अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री राम जी ने अपना लिया । प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को ( बहुत ) भाया ।। 1 ।।
 
फिर सब कुछ जानने वाले , सबके हृदय मे बसने वाले, सर्वरूप ( सब रूपो मे प्रकट ), सबसे रहित, उदासीन, कारण से ( भक्तो पर कृपा करने के लिए ) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसो के कुल का नाश करने वाले श्री राम जी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले ।। 2 ।।
 
 सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ।। 3 ।।
 
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण ! सुनो , इस गहरे समुन्द्र को किस प्रकार पार किया जाए ?  अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियो से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुन्द्र पार करने मे सब प्रकार से कठिन है ।। 3 ।।
 
विभीषण जी ने कहा- हे रघुनाथ जी ! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ो समुन्द्रो को सोखने वाला है ( सोख सकता है ) तथापि नीति ऐसी कही गई है ( उचित यह होगा ) कि ( पहले ) जाकर समुन्द्र से प्रार्थना की जाए ।। 4 ।।
 
 दोहा – 50
 
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ।। 50 ।।
 
भावार्थः- हे प्रभु ! समुन्द्र आपके कुल मे बड़े ( पूर्वज ) है , वे विचारकर उपाय बतला देंगे । तब रीछ और वानरो की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुन्द्र के पार उतर जाएगी ।। 50 ।।
 
 सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा ।। 1 ।।
 
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( श्री राम जी ने कहा – ) हे सखा ! तुमने अच्छा उपाय बताया । यही किया जाए, यदि दैव यहायक हो । यह सलाह लक्ष्मण जी के मन को अच्छी नही लगी । श्री राम जी के वचन सुनकर तो उन्होने बहुत ही दुःख पाया ।। 1 ।।
 
( लक्ष्मणी जी ने कहा – ) हे नाथ ! दैव का कौन भरोसा ! मन मे क्रोध ( ले आइए ) और समुन्द्र को सुखा डालिए । यह दैव तो कायर के मन आधार ( तसल्ली देने का उपाय ) है । आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते है ।। 2 ।।


 
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई ।। 3 ।।
 
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए ।। 4 ।।
 
भावार्थः- यह सुनकर श्री रघुनीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे , मन मे धीरज रखो । ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथ जी समुन्द्र के समीप गए ।। 3 ।।
 
उन्होने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया । फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए । इधर ज्यो ही विभीषण जी प्रभु के पास आए थे, त्यो ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे ।। 4 ।।
 
 दोहा – 51
 
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ।। 51 ।।
 
भावार्थः- कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होने सब लीलाएँ देखी । वे अपने हृदय मे प्रभु के गुणो की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे ।। 51 ।।
 
 प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने ।। 1 ।।
 
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए ।। 2 ।।
 
भावार्थः- फिर वे प्रकट रूप मे भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री राम जी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हे दुराव ( कपट देश ) भूल गया । सब वानरो ने जाना कि ये शत्रु के दूत है और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए ।। 1 ।।
 
सुग्रीव ने कहा – सब वानरो ! सुनो , राक्षसो के अंग-भंग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े । दूतो को बाँधकर उन्होने सेना के चारो ओर घुमाया ।। 2 ।।
 
 बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना ।। 3 ।।
 
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती ।। 4 ।।
 
भावार्थः- वानर उन्हे बहुत तरह से मारने लगे । वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरो ने उन्हे नही छोड़ा । ( तब दूतो ने पुकारकर कहा – ) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री राम जी की सौगंध है ।। 3 ।।
 
यह सुनकर लक्ष्यणजी  ने सबको निकट बुलाया । उन्हे बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होने राक्षसो को तुरंत ही छुड़ा दिया । ( और उनसे कहा – ) रावण के हाथ मे यह चिट्ठी देना ( और कहना- ) हे कुलघातक ! लक्ष्मण के शब्दो ( संदेश ) को बाँचो ।। 4 ।।
 
 दोहा – 52
 
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ।। 52 ।।
 
भावार्थः- फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार ( कृपा से भरा हुआ ) संदेश कहना कि सीता जी को देकर उनसे ( श्री राम जी से ) मिलो, नही तो तुम्हारा काल आ गया ( समझो ) ।। 52 ।।
 
 तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए ।। 1 ।।
 
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी ।। 2 ।।
 
भावार्थः- लक्ष्मण जी के चरणो मे मस्तक नवाकर, श्री राम जी के गुणो की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरन्त ही चल दिए । श्री राम जी का यश कहते हुए वे लंका मे आए और उन्होने रावण के चरणो मे सिर नवाए ।। 1 ।।
 
दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी – अरे शुक ! अपनी कुशल क्यो नही कहता ? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है ।। 2 ।।


 
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ।। 3 ।।
 
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ।। 4 ।।
 
भावार्थः- मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया । अभागा अब जौ का कीड़ा ( धुन ) बनेगा ( जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है , वैसे ही नर वानरो के साथ वह भी मारा जाएगा ) , फिर भालु और वानरो की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है ।। 3 ।।
 
और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुन्द्र बन गया है ( अर्थात् ) उनके और राक्षसो के बीच मे यदि समुन्द्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हे मारकर खा गए होते । फिर उन तपस्वियो की बात बता, जिनके हृदय मे मेरा बड़ा डर है । ।। 4।।
 
 दोहा – 53
 
 की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ।। 53 ।।
 
भावार्थः- उनसे तेरी भेट हुई या वे कानो से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए ? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यो नही ? तेरा चित्त बहुत ही चकित ( भौचक्का सा ) हो रहा है ।। 53 ।।
 
 नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा ।। 1 ।।
 
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिका काटै लागे। राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ।। 2 ।।
 
भावार्थः-  ( दूत ने कहा – ) हे नाथ ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए ( मेरी बात पर विश्र्वास कीजिए ) । जब आपका छोटा भाई श्री राम जी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री राम जी ने उसको राज तिलक कर दिया ।। 1 ।।
 
हम रावण के दूत है , यह कानो से सुनकर वानरो ने हमे बाँधकर बहुत कष्ट दिए , यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे । श्री राम जी की शपथ दिलाने पर कही उन्होने हमको छोड़ा ।। 2 ।।
 

 
पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी ।। 3 ।।
 
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला ।। 4 ।।
 
भावार्थः- हे नाथ ! आपने श्री राम जी की सेना पूछी , सो वह तो सौ करोड़ मुखो से भी वर्णन नही की जा सकती । अनेको रंगो के भालु और वानरो की सेना है, जो भयंकर मुख वाले , विशाल शरीर वाले और भयानक है ।। 3 ।।
 
जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा , उसका बल तो सब वानरो मे थोड़ा है । असंख्य नामो वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा है । उनमे असंख्य हाथियो का बल है और वे बड़े ही विशाल है ।। 4 ।।
 
 
दोहा – 54
 
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ।। 54 ।।
 
भावार्थः- द्विविद, मयंद , नील , अंगद , गद , विकटास्य , दधिमुख, केसरी , निशठ, शठ और जाम्बवान् ये सभी भल की राशि है ।। 54 ।।
 
 ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ।। 1 ।।
 
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ये सब वानर बल मे सुग्रीव के समान है और इनके जैसे ( एक-दो नही ) करोड़ो है , उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है । श्री राम जी की कृपा से उनमे अतुलनीय बल है । वे तीनो लोको को तृण के समान तुच्छ समझते है ।। 1 ।।
 
हे दसग्रीव ! मैने कानो से ऐसा सुना है कि अठारह पद्द तो अकेले वानरो के सेनापति है । हे नाथ ! उस सेना मे ऐसा कोई वानर नही है, जो आपको रण मे न जीत सके ।। 2 ।।
 

 
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ।। 3 ।।
 
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ।। 4 ।।
 
भावार्थः- सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते है । पर श्री रघुनाथ जी उन्हे आज्ञा नही देते । हम मछलियो और साँपो सहित समुन्द्र को सोख लेंगे । नही तो बड़े-बड़े पर्वतो से उसे भरकर पूर ( पाट ) देंगे ।। 3 ।।
 
और रावण को मसलकर धूल मे मिला देंगे । सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे है । सब सहज ही निडर है, इस प्रकार गरजते और डपटते है मानो लंका को निगल ही जाना चाहते है ।। 4 ।।
 
 दोहा – 55
 
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ।। 55 ।।
 
भावार्थः- सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर है फिर उनके सिर पर प्रभु ( सर्वेश्र्वर ) श्री राम जी है । हे रावण ! वे संग्राम मे करोड़ो कालो को जीत सकते है ।। 55 ।।
 
 राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई ।।
सक सर एक सोषि सत सागर । तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ।। 1 ।।
 
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा ।। 2 ।।
 
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ।। 3 ।।
 
भावार्थः- श्री राम चन्द्र जी के तेज , बल और बुद्धि की अधिकता को लाखो शेष भी नही गा सकते । वे एक ही बाण से सैकड़ो समुद्रो को सोख सकते है, परन्तु नीति निपुण श्री राम जी ने ( नीति की रक्षा के लिए ) आपके भाई से उपाय पूछा ।। 1 ।।
 
उनके ( आपके भाई के ) वचन सुनकर वे ( श्री राम जी ) समुन्द्र से राह माँग रहे है, उनके मन मे कृपा भी है ( इसलिए वे उसे सोखते नही ) दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा ( और बोला – ) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरो को सहायक बनाया है ।। 2 ।।
 
स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होने समुद्र से मचलना ( बालहठ ) ठाना है । अरे मूर्ख ! झूठी बड़ाई क्या करता है ? बस, मैने शत्रु ( राम ) के बल और बुद्धि की थाह पा ली ।। 3 ।।
 
 सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ।। 4 ।।
 
रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ।।
 
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन ।। 5 ।।
 
 
भावार्थः- जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मन्त्री हो, उसे जगतमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ? दुष्ट रावणके वचन सुनकर दूतको क्रोध बढ़ आया| उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली||4||( और कहा ) – श्री राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है । हे नाथ ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए । रावण वे हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बचाने लगा ।। 5 ।।
 
 दोहा – 56
 
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ।। 56(क) ।।
 
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग  ।। 56(ख) ।।
 
 
भावार्थः- ( पत्रिका मे लिखा था- ) अरे मूर्ख ! केवल बातो से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-नष्ट न कर । श्री राम जी से विरोध करके तू विष्णु , ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नही बचेगा ।। 56 क ।।
 
या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलो का भ्रमर बन जा । अथवा रे दुष्ट ! श्री राम जी के बाण रूपी अग्नि मे परिवान सहित पतिंगा हो जा ( दोनो मे से जो अच्छा लगे सो कर ) ।। 56 ख ।।
 
  
 सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा ।। 1 ।।
 
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा ।। 2 ।।
 
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही ।। 3 ।।
 
भावार्थः- पत्रिका सुनते ही रावण मन मे भयभीत हो गया, परन्तु मुख से ( ऊपर से ) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा – जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता है, वैसे ही यह छोटा तपस्वी ( लक्ष्मण ) वाग्विलास करता है ( डींग हाँकता है ) ।। 1 ।।
 
शुक ( दूत ) ने कहा – हे नाथ ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर ( इस पत्र मे लिखी ) सब बातो को सत्य समझिए । क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए । हे नाथ ! श्री राम जी से वैर त्याग दीजिए ।। 2 ।।
 
यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोको के स्वामी है, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है । मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय मे नही रखेंगे ।। 3 ।।
 
 जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ।। 4 ।।
 
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई ।। 5 ।।
 
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ।। 6 ।।
 
भावार्थः- जानकी जी श्री रघुनाथ जी को दे दीजिए । हे प्रभु ! इतना कहना मेरा कीजिए । जब उस ( दूत ) ने जानकी जी को देने के लिए कहा , तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी ।। 4 ।।
वह भी ( विभीषण की भाँति ) चरणो मे सिर नवाकर नही चला , जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथ जी थे । प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री राम जी की कृपा से अपनी गति ( मुनि का स्वरूप ) पाई ।। 5 ।।
( शिवाजी कहते है ) – हे भवानी ! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप के राक्षस हो गया था । बार-बार श्री राम जी के चरणो की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया ।। 6 ।।
 
 बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ।। 57 ।।
 
भावार्थः- इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड़ समुन्द्र विनय नही मानता । तब श्री राम जी क्रोध सहित बोले – बिना भय के प्रीति नही होती ! ।। 57 ।।
 लछिमन बान सरासन आनू।  सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती ।। 1 ।।
 
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा ।। 2 ।।
 
भावार्थः- हे लक्ष्मण ! धनुष-बाण लाओ, मै अग्निबाण से समुन्द्र को सोख डालूँ । मूर्ख से विनय , कुटिल के साथ प्रीति , स्वाभाविक ही कंजूस से सुन्दर नीति ( उदारता का उपदेश ) ।। 1 ।।
 
ममता मे फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन , क्रोधी से शम ( शांति ) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर मे बीज बोने से होता है ( अर्थात् ऊसर मे बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है ) ।। 2 ।।
 


अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ।। 3 ।।
 
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना ।। 4 ।।
 
भावार्थः- ऐसा कहकर श्री रघुनाथ जी ने धनुष चढ़ाया । यह मत लक्ष्मण जी के मन को बहुत अच्छा लगा । प्रभु ने भयानक ( अग्नि ) बाण संधान किया , जिससे समुन्द्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी ।। 3 ।।
 
मगर, साँप तथा मछलियो के समूह व्याकुल हो गए । जब समुन्द्र ने जीवो को जलते जाना, तब सोने के थाल मे अनेक मणियो ( रत्नो ) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप मे आया ।। 4 ।।
 दोहा – 58
 
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ।। 58 ।।
 
भावार्थः- ( काकभुशुण्डि जी कहते है – ) हे गुरूड़ जी ! सुनिए , चाहे कोई करोड़ो उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है । नीच विनय से नही मानता , वह डाँटने पर ही झुकता है ( रास्ते पर आता है ) ।। 58 ।।
 सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।। 1 ।।
 
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ।। 2 ।।
 
भावार्थः- समुन्द्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा – हे नाथ ! मेरे सब अवगुण ( दोष ) क्षमा कीजिए । हे नाथ ! आकाश, वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है ।। 1 ।।
 
आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हे सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथो ने यही गाया है । जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है , वह उसी प्रकार से रहने मे सुख पाता है ।। 2 ।।
 

 
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3 ।।
 
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ।। 4 ।।
 
भावार्थः- प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा ( दंड ) दी, किंतु मर्यादा ( जीवो का स्वभाव ) भी आपकी ही बनाई हुई है । ढोल, गँवार , शूद्र, पशु और स्त्री – ये सब शिक्षा के अधिकारी है ।। 3 ।।
 
प्रभु के प्रताप से मै सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमे मेरी बड़ाई नही है ( मेरी मर्यादा नही रहेगी ) । तथापि प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नही हो सकता ) ऐसा वेद गाते है । अब आपको जो अच्छा लगे, मै तुरन्त वही करूँ ।। 4 ।।
 
 दोहा – 59
 
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ।। 59 ।।
 
भावार्थः- समुन्द्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री राम जी ने मुस्कुराकर कहा – हे तात ! जिस प्रकार वानरो की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ ।। 59 ।।
 नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई ।।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ।। 1 ।।
 
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई ।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ।। 2 ।।
 
भावार्थः- ( समुन्द्र ने कहा – ) हे नाथ ! नील और नल दो वानर भाई है । उन्होने लड़कपन मे ऋषि से आशीर्वाद पाया था । उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुन्द्र पर तैर जाएँगे ।। 1 ।।
 
मै भी प्रभु की प्रभुता को हृदय मे धारण कर अपने बल के अनुसार ( जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा ) सहायता करूँगा । हे नाथ ! इस प्रकार समुन्द्र को बँधाइए, जिससे तीनो लोको मे आपका सुन्दर यश गाया जाए ।। 2 ।।
 


एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी ।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा ।। 3 ।।
 
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा ।। 4 ।।
 
भावार्थः- इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यो का वध कीजिए । कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुन्द्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरन्त ही हर लिया ( अर्थात् बाण से उन दुष्टो का बध कर दिया ) ।। 3 ।।
 
श्री रामजी का भारी बल और पौरूष देखकर समुन्द्र हर्षित होकर सुखी हो गया । उसने उन दुष्टो का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया । फिर चरणो की वंदना करके समुन्द्र चला गया ।। 4 ।।
 
 छन्द ( 1-2  )
 
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ।। 1 ।।
 
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ।। 2 ।।
 
भावार्थः- समुन्द्र अपने घर चला गया , श्री रघुनाथ जी को यह मत ( उसकी सलाह ) अच्छा लगा । यह चरित्र कलियुग के पापो को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है । ।। 1 ।।
 
श्री रघुनाथ जी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले है । अरे मूर्ख मन ! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हे गा और सुन । ।। 2 ।।
 
 दोहा – 60
 
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ।। 60 ।।
 
भावार्थः- श्री रघुनाथ जी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलो का देने वाला है । जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज ( अन्य साधन ) के ही भवसागर को तर जाएँगे ।। 60 ।।
 
 इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
 
भावार्थः- कलियुग के समस्त पापो का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ ।

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