जलवायु विज्ञानं ( Climatology )
वायुमंडल
पृथ्वी के चारों तरफ व्याप्त गैसीय आवरण जो पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण टिका हुआ है, वायुमंडल (Atmosphere) कहलाता है। स्ट्राहलर के अनुसार वायुमंडल की ऊंचाई लगभग 16-29 हजार किमी तक है। अनुमानतः संपूर्ण वायुमंडलीय संगठन का 97% भाग 29 किमी की ऊंचाई तक ही अवस्थित है। पृथ्वी के वायुमंडल का निर्माण विभिन्न अवयवों से हुआ है जिनमें गैसीय कण, जलवाष्प तथा धूलकण सम्मिलित हैं।
विभिन्न गैसें | आयतन (प्रतिशत में) |
---|---|
नाइट्रोजन | 78.8 |
ऑक्सीजन | 20.24 |
आर्गन | 0.93 |
कार्बन डाइऑक्साइड | 0.036 |
निऑन | 0.018 |
हीलियम | 0.0005 |
ओजोन | 0.00006 |
ऑक्सीजन एक ज्वलनशील गैस है। नाइट्रोजन ऑक्सीजन को तनु करती है एवं इसकी ज्वलनशीलता को नियंत्रित करता है। [120 किमी की ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य होगी
कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीन हाउस गैस है। यह सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है परन्तु पार्थिक विकिरण के लिए यह अपारदर्शी की तरह कार्य करती है। [कार्बन डाइऑक्साइड और जलवाष्प पृथ्वी की सतह से केवल 92 किमी की ऊंचाई तक पाए जाते हैं|
ओजोन परत सूर्य से आने वाली लगभग सभी पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी को अत्यधिक गर्म होने से बचाती है। [यह पृथ्वी की सतह से 10 से 50 किमी की ऊंचाई तक पाई जाती है
कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन जैसी भारी गैसें निचले वायुमंडल में पाई जाती हैं [कार्बन डाईऑक्साइड 20 किमी तक और नाइट्रोजन 100 किमी तक] जबकि हीलियम, निऑन, क्रिप्टान एवं जेनॉन जैसी हल्की गैसें वायमंडल में अधिक ऊंचाई पर (ऊपरी वायुमंडल) पाई जाती हैं।
जलवाष्प
- पृथ्वी के लिए एक कंबल की तरह कार्य करता है जो इसे न तो अत्यधिक गर्म और न ही अत्यधिक ठंडा होने देता है। यह सौर्य विकिरण को अवशोषित करने के साथ-साथ पार्थिव विकिरण को भी सुरक्षित रखता है।
- सूर्य से आने वाली किरणों में प्रकीर्णन के कारण ही आकाश का रंग नीला प्रतीत होता है।
- जलवायु के दृष्टिकोण से ये ठोस कण बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये ठोस कण ही आर्द्रताग्राही नाभिक का कार्य करते हैं जिनके चारों तरफ संघनन के कारण जलबूंदों का निर्माण होता है |
- बादल तथा वर्षण एवं संघनन के विभिन्न प्रतिरूप इन जलवाष्प कणों के कारण ही अस्तित्व में आते हैं।
वायुमंडल की संरचना
वायुमंडल में वायु की विभिन्न संकेन्द्रित परतें पायी जाती हैं। जिनके तापमान और घनत्व में भिन्नता होती है । पृथ्वी की सतह के पास घनत्व सर्वाधिक होता है और ऊंचाई बढ़ने के साथ कम होता जाता है। तापमान के ऊर्ध्वाधर वितरण के आधार पर वायुमंडल को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है :
क्षोभमंडल (Troposphere)
- क्षोभमंडल वायुमंडल की सबसे निचली एवं सघन परत है। यह परत संपूर्ण वायुभार का लगभग 75% स्वयं में समाविष्ट किए हुए है।
- भूतल से इसकी औसत ऊंचाई लगभग 14 किमी है। यह ध्रुवीय क्षेत्रों में लगभग 8 किमी की ऊंचाई तक तथा विषुवत रेखा के समीप 18 किमी की ऊंचाई तक विस्तृत है।
- क्षोभमंडल की मोटाई विषुवत रेखा के समीप सर्वाधिक पाई जाती है क्योंकि इन क्षेत्रों में तापमान का स्थानांतरण संवहन तरंग के कारण अधिक ऊंचाई तक होता है।
- इन कारणों से इसे संवहन परत (Convectional Layer) भी कहा जाता है। चूंकि धूलकण और जलवाष्प इसी मंडल में पाए जाते हैं, अतः सारी मौसमी घटनाएं जैसे कुहरा, धुंध, बादल, ओस, वर्षा, ओलावृष्टि, तड़ित-गर्जन, आदि इसी मंडल में घटित होती हैं।
- ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान में कमी 165 मीटर की ऊंचाई पर 1°C अथवा 1000 फीट पर 3.6°F अथवा 6.5°C/किमी. की दर से होती है। इसे सामान्य ताप हास दर कहते हैं।
- उबड़-खाबड़ हवा के पैकेटों की उपस्थिति के कारण जेट विमान के चालक इस परत से बचते हैं।
- क्षोभमंडल एवं समतापमंडल के मध्य एक संक्रमण क्षेत्र पाया जाता है जिसे ट्रोपोपॉज (Tropopause) कहते हैं |
समतापमंडल (Stratosphere)
- समतापमंडल क्षोभमंडल के ऊपर 50 किमी की ऊंचाई तक विस्तृत है।
- इस परत के निचले भाग में लगभग 20 किमी की ऊंचाई तक तापमान स्थिर पाया जाता है। तत्पश्चात् यह 50 किमी की ऊंचाई तक क्रमिक रूप से बढ़ता जाता है।
- तापमान में वृद्धि, इस परत में ओजोन की उपस्थिति के कारण होती है जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है।
- ओजोन का सर्वाधिक घनत्व 20 से 35 किमी के मध्य पाया जाता है। इसलिए इसे “ओजोन परत’ भी कहा जाता है।
- समताप मंडल में बादल बिल्कुल नहीं के बराबर पाए जाते हैं और बहुत कम धूल व जलवाष्प पाए जाते हैं अतः यह जेट विमानों के उड़ने हेतु आदर्श होता है।
- समतापमंडल के बिल्कुल ऊपरी भाग में तापमान 0°C तक पाया जाता है।
- समतापमंडल एवं मध्यमंडल के बीच एक संक्रमण क्षेत्र पाया जाता है, जिसे स्ट्रेटोपॉज (Stratopuase) के नाम से जानते हैं।
मध्यमंडल (Mesosphere)
- समतापमंडल के ऊपर 80 किमी की ऊंचाई तक मध्यमंडल का विस्तार पाया जाता है। इस परत में ऊंचाई में वृद्धि के साथ तापमान में कमी होती है और 80 किमी की ऊंचाई पर तापमान -100° से. होता है।
- इसके ऊपरी हिस्से को मेसोपॉज (Mesopause) कहते हैं।
तापमंडल (Thermosphere)
मेसोपॉज के ऊपर स्थित वायुमंडलीय परत को तापमंडल कहते हैं | इस मंडल में ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान तेजी से बढ़ता है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है :
(i) आयनमंडल (Ionosphere)
- इसके सबसे ऊपरी भाग को मेसोपॉज कहते हैं।
- आयनमंडल का विस्तार 80 से 400 किमी के बीच है।
- इस परत में तापमान में त्वरित वृद्धि होती है तथा इसके ऊपरी भाग में तापमान 1000°C तक पहुंच जाता है।
- इसी परत से रेडियो तरंगें परावर्तित होकर पुनः पृथ्वी पर वापस आती हैं।
(ii) बाह्यमंडल (Exosphere)
- आयनमंडल के बाद का बाहरी वायुमंडलीय आवरण, जो 400 किमी के बाद का ऊपरी वायुमंडलीय भाग है, बाह्यमंडल कहलाता है।
- यह परत काफी विरलित है और धीरे-धीरे अंतरिक्ष में मिल जाती है।
- इस परत में ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व हीलियम के परमाणु पाए जाते हैं।
वायुमंडल का तापमान
- वायुमंडल के लिए ऊर्जा का मुख्य स्रोत सौर ऊर्जा है।
- सूर्याताप (Insolation) आपतित सौर्य विकिरण है। यह लघु तरंगों के रूप में प्राप्त होता है। पृथ्वी की सतह एक मिनट में एक वर्ग सेमी सतह पर 2 कैलोरी ऊर्जा (2 कैलोरी/सेमी/मिनट) प्राप्त करती है। यह सौर्य स्थिरांक कहलाता है।
- आपतित सौर विकिरण एक प्रकाशपुंज के रूप में होता है जिसमें विभिन्न तरंगदैर्ध्य वाली किरणें होती हैं। सूर्य से निकलने वाली ऊर्जा विद्युत चुम्बकीय तरंग के रूप में होती है।
- दीर्घ तरंगदैर्ध्य वाली किरणें वायुमंडल में अधिकांशतः अवशोषित हो जाती हैं, जिन्हें इन्फ्रारेड किरण कहते हैं। लघु तरंग वाली किरणें अल्ट्रावायलेट कहलाती हैं।
वायुमंडल का तापन एवं शीतलन
- हवा भी अन्य पदार्थों की तरह तीन तरह से गर्म होती है विकिरण, चालन एवं संवहन ।
- विकिरण में कोई भी वस्तु या पिंड सीधे तौर पर ऊष्मा तरंग को प्राप्त कर गर्म होता है। यही एकमात्र ऐसी विधि है जिसमें निर्वात में भी ऊष्मा का संचरण होता है। यह ऊष्मा स्थानांतरण का सबसे महत्वपूर्ण तरीका है।
- पृथ्वी सौर विकिरण को लघु तरंग के रूप में ग्रहण करती है एवं इसे दीर्घ तरंग के रूप में मुक्त करती है, जिसे पार्थिव विकिरण (Terrestrial Radiation) कहते हैं ।
- पृथ्वी का वायुमंडल सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है परन्तु पार्थिक विकिरण के लिए लगभग अपारदर्शी की तरह कार्य करता है। कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प दीर्घ तरंगों के अच्छे अवशोषक हैं।
- वायुमंडल आपतित सौर विकिरण की तुलना में पार्थिव विकिरण से ज्यादा ऊष्मा प्राप्त करता है।
- जब किसी वस्तु में ऊष्मा का स्थानांतरण अणुओं में गति के कारण होता है, तो यह चालन (Convection) कहलाता है। संवहन में वस्तुओं के एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने के कारण ऊष्मा का स्थानांतरण होता है।
ऊष्मा बजट (Heat Budget)
पृथ्वी द्वारा प्राप्त सूर्यताप की मात्रा एवं इससे निकलने वाले पार्थिक विकिरण के बीच संतुलन को ‘पृथ्वी का ऊष्मा बजट’ कहते हैं।
दाब कटिबंध एवं पवन संचार
- वायु का अपना एक भार होता है। इस कारण धरातल पर वायु अपने भार द्वारा दबाव डालती है। धरातल पर या सागर तल पर क्षेत्रफल की प्रति इकाई पर ऊपर स्थित वायुमंडल की समस्त परतों द्वारा पड़ने वाले भार को ही ‘वायुदाब’ कहा जाता है। वायुमंडल लगभग 1 किग्रा/वर्ग सेमी का औसत दाब डालता है।
- सागर तल पर गुरूत्व के प्रभाव के कारण वायु संपीड़ित होती है अतः पृथ्वी की सतह के समीप यह घनी होती है। ऊंचाई बढ़ने के साथ यह तेजी से कम होती है। परिणामतः आधा वायुमंडलीय दाब 5500 मीटर के नीचे संपीड़ित होता है। 75% दाब 10,700 मीटर के नीचे और 90% ट्रोपोपॉज (1600 मी) के नीचे संपीडीत होता है।
- वायुदाब का मापन बैरोमीटर नामक यंत्र से किया जाता है जिसे टॉरिसेली ने विकसित किया था।
- एक मीटर लंबी पारे की नली के बिना काम करने वाला एक अधिक ठोस (संक्षिप्त) यंत्र अनेरॉयड बैरोमीटर है।
- वायुमंडलीय दाब के वितरण को आइसोबार के मानचित्र से दर्शाया जाता है।
नोट : .
- आइसोबार समुद्रतल पर लिए गए समान वायुमंडलीय दाब वाले स्थानों से होकर खीची गई आभासी रेखा है।
- इस उद्देश्य हेतु मौसम विज्ञानियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली इकाई मिलिबार कहलाती है।
- समुद्रतल पर सामान्य दबाव 76 सेंटीमीटर माना जाता है।
- एक मिलिबार 1 ग्राम द्वारा एक सेंटीमीटर क्षेत्र पर लगने वाला बल
पृथ्वी के दाब कटिबंध
(a) विषुवतरेखीय निम्न वायुदाब
- इस वायुदाब की पेटी का विस्तार एक संकीर्ण पट्टी के रूप में है। यहां सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं। अत्यधिक तापमान के कारण हवाएं गर्म होकर फैलती हैं तथा ऊपर उठती हैं। शीघ्र ही ‘ट्रोपोपॉज’ तक बादल का उर्ध्वाधर स्तंभ पहुंच जाता है तथा घनघोर मूसलाधार वर्षा होती है।
- इसी पेटी में वायु के अभिसरण के कारण अन्तरा-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) का निर्माण होता है।
- इस पेटी में हेडली कोशिका का निर्माण होता है।
- यह व्यापारिक पवन प्रचुर मात्रा में नमी धारण करती है। जब यह हेडली संचरण के सहारे आरोहित होती है।
- ITCZ के अन्तर्गत हवाओं में गति कम होने के कारण शान्त वातावरण रहता है। इसी कारण इस पेटी को डोलड्रम कहा जाता है।
(b) उपोष्णकटिबंधीय उच्च वायुदाब की पेटी
- दोनों गोलार्धा में 30° से 35° उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों के मध्य यह पेटी पाई जाती है। इस क्षेत्र में शुष्क एवं उष्ण वायु पाई जाती है। यहां आकाश बिल्कुल साफ एवं बादल रहित होता है।
- यद्यपि इस पेटी के निर्माण का गतिकी कारण अत्यंत जटिल है, तथापि सामान्यतया इसका निर्माण हेडली कोशिका के सहारे वायु के अवरोहण एवं अवतलन से होता है।
- जब वायु का अवतलन इन क्षेत्रों में होता है तो वायु गर्म हो जाती है तथा सतह पर आकर इनका अपसरण होता है। इन क्षेत्रों में प्रतिचक्रवातीय दशा पाई जाती है | धरातल पर यह मरूस्थलों का क्षेत्र है जो अफ्रीका और एशिया में सर्वाधिक विस्तृत हैं।
(c) उपध्रुवीय निम्नवायुदाब की पेटी
- इस पेटी का विकास 60° और 65° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के आसपास होता है।
- इस क्षेत्र में दो भिन्न तापमानों वाली वायुराशियों के मिलने से ध्रुवीय वाताग्र का निर्माण होता है।
- दक्षिणी गोलार्ध में इस पेटी में अंटार्कटिका के चारों ओर एक उपध्रुवीय चक्रवातीय व्यवस्था का निर्माण होता है।
(d) ध्रुवीय उच्च वायुदाब की पेटी
- कम तापमान के कारण इस पेटी का विकास होता है।
- यहां पर शुष्क एवं ठंडी हवाओं का अपसरण क्षेत्र होता है, जिससे यहां प्रतिचक्रवातीय दशा पाई जाती है।
- यहां पर वायु की दिशा उत्तरी गोलार्ध में घड़ी की दिशा में तथा दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की विपरीत दिशा में होती है।
नाम | कारण | अवस्थिति | तापमान/ आर्द्रता |
---|---|---|---|
विषुवतरेखीय निम्न वायुदाब | तापजनित | 10°N से 10°S | उष्ण/आर्द्र |
उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब | गतिकी | 20° से 35 | उष्ण/आर्द्र |
उपध्रुवीय निम्न वायुदाब | तापजनित | 60°N, 60°S | शीत/आर्द्र |
ध्रुवीय उच्च वायुदाब | गतिकी | 90°N, 90°S | शीत/आर्द्र |
वायु संचरण (Wind System)
- वायु के क्षैतिज प्रवाह को पवन (Wind) कहते हैं। इसका आविर्भाव वायुदाब में क्षैतिज अन्तर के कारण होता है। वायुदाब में क्षैतिज अन्तर के कारण वायु का प्रवाह उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर होता है। उर्ध्वाधर वायु परिसंचरण ‘वायुधारा’ कहलाती है। पवन एवं वायुधारा अर्थात क्षैतिज एवं उर्ध्वाधर परिसंचरण मिलकर संपूर्ण वायुमंडलीय परिसंचरण
- का निर्माण करते हैं । पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण हवाएं समदाब रेखाओं को सीधे समकोण पर नहीं प्रतिच्छेद कर पाती हैं, बल्कि यह अपने मुख्य पथ से कुछ विचलित हो जाती हैं । यह विचलन पृथ्वी के घूर्णन का परिणाम है तथा इसे कोरिऑलिस बल कहा जाता है।
- कोरिऑलिस बल के कारण वायु की दिशा में विचलन उत्तरी गोलार्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्ध में बाई ओर होता है। इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं।
पवनों के प्रकार
इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है :
1. प्रचलित पवन : ऐसी हवाएं वर्षभर प्रायः एक ही दिशा में एक अक्षांश से दूसरे अक्षांश की ओर चला करती हैं। इनमें से प्रमुख है-व्यापारिक हवाएं, पछुवा हवाएं तथा ध्रुवीय हवाएं।
2. मौसमी पवन : इन हवाओं की दिशा में मौसमी परिवर्तन होता है। जैसे-मानसून, स्थलीय तथा सागरीय समीर, पर्वत तथा घाटी समीर आदि।
3. स्थानीय पवन : ये हवाएं विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रों में स्थानीय रूप से चला करती हैं। इनकी अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं। इनका नामकरण भी स्थानीय भाषाओं से संबंधित होता है।
प्रचलित पवनें (Planetary winds) प्रचलित पवनें दो प्रकार की होती हैं :
1. व्यापारिक पवन (Trade winds): इस पवन का प्रवाह उपोष्णकटिबंधीय उच्च वायुदाब के क्षेत्र से विषुवत रेखीय निम्न । वायुदाब की ओर होता है। ये पवनें वर्षभर प्रायः नियमित एवं स्थायी रूप से प्रवाहित होती हैं। ये पवनें दोनों गोलार्धा में विषुवत रेखा के समीप अभिसरित होती हैं तथा अभिसरण क्षेत्र में इसके ऊपर उठने से भारी वर्षा होती है।
2.पछुआ पवन (Westerlies): पछुआ पवन उपोष्णकटिबंधीय उच्च वायुदाब की पेटी से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की ओर प्रवाहित होती है। उत्तरी गोलार्ध में इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा दक्षिण गोलार्ध में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व की ओर होती है।
मौसमी पवनें (Periodic winds) इसके अंतर्गत निम्न पवनें आती हैं :
स्थलीय तथा सागरीय पवनें : दिन के समय स्थलीय भाग जल की अपेक्षा शीघ्र गर्म हो जाता है, जिस कारण सागरवर्ती तटीय भाग पर निम्न दाब तथा सागरीय भाग पर उच्च दाब स्थापित हो जाते हैं। इस कारण से सागर से स्थल की ओर हवाएं चलने लगती हैं जिसे सागरीय समीर कहते हैं। __सूर्यास्त के बाद स्थलीय भाग शीघ्र ठंडे हो जाते हैं, जिससे स्थलीय भाग पर उच्च दाब तथा सागरों पर निम्न दाब बन जाता है। परिणामस्वरूप स्थल से जल की ओर हवाएं चलने लगती है जिन्हें स्थलीय समीर कहते हैं।
पर्वत तथा घाटी पवनें (Mountain Breeze): दिन के समयपर्वतीय घाटियों के निचले भाग में अधिक तापमान के कारण हवाएं गर्म होकर ऊपर उठती हैं तथा पर्वतीय ढालों के सहारे ऊठती है। इन्हें घाटी समीर कहते हैं। रात्रि के समय पर्वतीय ढालों तथा ऊपरी भागों पर विकिरण द्वारा ताप हास अधिक होता है, जिस कारण हवाएं ठंडी हो जाती हैं। ये ठंडी तथा भारी हवाएं ढालों के सहारे घाटियों में नीचे उतरती हैं जिसे पर्वतीय समीर कहते हैं।
स्थानीय पवनें (Local Winds) कुछ स्थानीय पवनें निम्नलिखित हैं :
- ब्लिजार्ड (ग्रीनलैंड, कनाडा, अन्टार्कटिका) : ये ध्रुवीय हवाएं हैं जो बर्फ के कणों से युक्त होती हैं।
- बोरा (एड्रियाटिक सागर) : यह एक शुष्क तथा अति ठंडी प्रचण्ड हवा है। आल्पस के दक्षिणी ढाल से उतर कर ये हवाएं दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती हैं।
- ब्रिक फिल्डर : यह ऑस्ट्रेलियाई मरूस्थल से प्रवाहित होने वाली गर्म हवा है। (दिसम्बर से फरवरी) बुरान (मध्य एशिया एवं साइबेरिया) : यह एक अति ठंडी प्रचण्ड हवा है जो उत्तर-पूर्व दिशा से प्रवाहित होती है। यह तापमान को -30°C तक ला देती है।
- चिली : यह एक उष्ण एवं शुष्क हवा है जो सहारा मरूस्थल से भूमध्यसागर की ओर प्रवाहित होती है।
- गिबली : ग्रीष्म ऋतु में सहारा मरूस्थल से भूमध्यसागर की ओर लीबिया में प्रवाहित होने वाली शुष्क हवा है। गिबली का प्रभाव अति प्रचण्ड होता है।
- हबुब (सूडान) : यह एक गर्म हवा है जो ग्रीष्म ऋतु में प्रवाहित होती है। हरमट्टन : पश्चिमी अफ्रीका में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें सहारा मरूस्थल से बहते हुए गिनी तट पर एक शुष्क हवा के रूप में पहुंचती हैं।
- काराबुरान (तारीम बेसिन–चीन) : यह मार्च तथा अप्रैल में प्रवाहित होती है। हांगहो नदी घाटी में लोयस मिट्टी के जमाव में इस हवा का योगदान होता है।
- खामसिन (मिस्र) : यह एक गर्म हवा है जो ग्रीष्म ऋतु के दौरान प्रवाहित होती है। ‘लू’ (उत्तर-पूर्व भारत) : अप्रैल-जून में प्रवाहित होने वाली धूल भरी गर्म हवा।
- मिस्ट्रल (फ्रांस की रोन नदी घाटी) : यह एक ठंडी हवा है जो जाड़े में 120 किमी/घंटे की रफ्तार से प्रवाहित होती है। फलों का बगीचा इससे प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।
- पाम्पेरो (अर्जेन्टिना का पम्पास क्षेत्र) : यह ठंडी एवं शुष्क हवा जाड़े में प्रवाहित होती है।
- समून (इरान एवं कुर्दिस्तान) : एक गर्म हवा जो ग्रीष्म ऋतु में प्रवाहित होती है।
- सिमॉन (सऊदी अरब : यह एक गर्म पवन है जो मार्च से जुलाई की अवधि में बहती है।
- सिरोको (अल्जीरिया) : यह सहारा मरूस्थल से माल्टा एवं सिसली द्वीप की ओर प्रवाहित होती है। यह सामान्यतः गर्म एवं आर्द्र हवा है।
- बर्ग (जर्मनी) : आल्पस पर्वत से नीचे उतरती है। यह जाड़े में बर्फ को पिघलाने में मदद करती है।
- चिनूक : यह अमेरिका के कोलोराडो, मोन्टाना, उत्तरी डकोटा, ऑरेगन और व्योमिंग प्रांत में तथा कनाडा के अल्बर्टा, मेनिटोबा एवं मैकेंजी क्षेत्र में दिसम्बर से मार्च तक प्रवाहित होने वाली गर्म और शुष्क हवा है जो बर्फ तथा हिम को पिघलाने में सहायता करती है। इसे ‘हिमभक्षक’ (snow eater) के नाम से जाना जाता है।
- फॉन : आल्पस की उत्तरी ढाल से होकर ऊपरी राइन नदी घाटी में प्रवाहित होती है। लेवेन्टर : यह दक्षिण-पूर्व स्पेन, बेलारिक द्वीप तथा जिब्राल्टर जलसंधि क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली मंद एवं आर्द्र हवा है जिससे इन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है।
- लेवेस : सिराको पवन के समान गर्म एवं शुष्क हवा जो दक्षिण स्पेन के तटीय क्षेत्रों से होकर प्रवाहित होती है।
- ट्रामोण्टान : यह एक ठंडी एवं शुष्क हवा है जो पश्चिमी भूमध्य-सागरीय बेसिन में प्रवाहित होती है। ग्रेगाल : यह टाइरेनियन सागर एवं सिसली तथा माल्टा द्वीप के तटीय क्षेत्र में प्रवाहित होती है। जाड़े में प्रवाहित होने वाली यह हवा ग्रेको (Greco) के नाम से भी जानी जाती है।
- जोण्डा : यह एक गर्म, आर्द्र एवं कष्टदायक हवा है जो अर्जेंटीना में प्रवाहित होती है।
- दक्षिणी बस्टर : एक अत्यधिक ठण्डी एवं शुष्क हवा है जो अर्जेंटीना-उरुग्वे क्षेत्र में प्रवाहित होती है। यह शीत वाताग्र से संबंधित हवा है।
- फ्रायजेम : यह एक अति ठण्डी प्रचण्ड हवा है जो ब्राजील के कम्पोज क्षेत्र एवं पूर्वी बोलीविया में प्रवाहित होती है।
- उत्तरी हवा : यह एक ठंडी उत्तरी हवा है जो अमेरिका के टेक्सास व गल्फ तटीय क्षेत्र में तापमान को कम कर देती है।
- पापागेयो : एक ठंडी एवं शुष्क हवा जो मैक्सिको के तटीय क्षेत्रों में तापमान कम करती है तथा जाड़े में साफ मौसम लाती है।
- सान्ताआना : एक गर्म एवं शुष्क हवा है जो कैलिफोर्निया की घाटी से होकर प्रवाहित होती है। यह धूल भरी हवा है जो फलोद्यानों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है।
- डस्ट डेविल : सहारा, कालाहारी मरूस्थल, मध्य एवं पश्चिमी अमेरिका तथा मध्य पश्चिमी क्षेत्रों में प्रवाहित होने वाली धूल भरी हवा।
- काराबोरान : एक प्रबल धूलभरी उत्तर-पूर्वी हवा जो केन्द्रीय एशिया के तारिम बेसिन में चलती है।
वायुमंडल में जलवाष्प
वायुमंडल में आर्द्रता से आशय वायुमंडल में उपस्थित जल से है। वायुमंडल में उपस्थित जल तीनों अवस्थाओं, जैसे-ठोस (हिम), द्रव (जल) तथा गैस (वाष्प) में हो सकता है।
बादल
बादल जलकणों या हिमकणों का समूह होता है जो वायुमंडल में तैरता रहता है। जलवायु विज्ञान की वह शाखा जो बादलों का अध्ययन करती है, ‘नेफोलॉजी’ अथवा बादल-भौतिकी कहलाती है।
विश्व मौसम संगठन द्वारा बादलों को निम्नलिखित दस वर्गों में विभाजित किया गया है :
1. पक्षाभ बादल (Cirrus Clouds) : ये सबसे अधिक ऊंचाई पर छोटे जल-कणों से बने होते हैं अतः वर्षा नहीं करते हैं। चक्रवातों के आगमन के पहले दिखते हैं।
2. पक्षाभ स्तरी बादल (Cirro Stratus Clouds) : इनके आगमन पर सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर प्रभा मण्डल (Malo) बन जाते हैं। ये सामान्यतः सफेद रंग के होते हैं और पारदर्शी होते हैं। ये चक्रवात के आगमन के सूचक हैं।
3. पक्षाभ कपासी बादल (Cirro Cumulus Clouds) : श्वेत रंग के ये बादल लहरनुमा रूप में पाये जाते हैं |
4. उच्च स्तरीय बादल (Alto Stratus Clouds): ये भूरे या नीले रंग की पतली चादर के समान होते हैं जो एक समान दिखते हैं। ये व्यापक व लगातार वर्षण करते हैं।
5. उच्च कपासी बादल (Alto Cumulus Clouds): इनका आकार सफेद या भूरे लहरदार परतों के रूप में होता है। इन्हें कभी-कभी “सीप क्लाउड’ या ‘वुल क्लाउड’ कहा जाता है।
6. स्तरी बादल (Stratus Clouds): ये बादल कम ऊंचाई के और प्रायः कुहरे के समान भूरे रंग के होते हैं।
7. कपास-स्तरी-बादल (Cumulo-Stratus-Clouds): ये भूरे व सफेद रंग के होते हैं। ये प्रायः गोलाकार होते हैं जो पंक्ति में व्यवस्थित होते हैं। सर्दियों में प्रायः ये पूरे आकाश को ढंक लेते हैं। ये सामान्यतः स्पष्ट व साफ मौसम से जुड़े होते हैं।
8. कपासी बादल (Cumulus Clouds): प्रायः ये लंबाई में होते हैं, जिनका ऊपरी भाग गुम्बदाकार होता है, परन्तु आधार समतल होता है। ये साफ व स्वच्छ मौसम से संबद्ध होते हैं।
9. कपासी वर्षा बादल (Cumulo-Nimbus-Clouds): ये अत्यधिक विस्तृत तथा गहरे बादल होते हैं, जिनका विस्तार ऊंचाई में अधिक होता है। इनके साथ वर्षा, ओला तथा तड़ित झंझावात की अधिक संभावना रहती है।
10. वर्षा-स्तरी-बादल (Nimbo-Stratus-Clouds): इनका उर्ध्वाधर विस्तार काफी होता है। ये गहरे रंग के निचले बादल हैं और सतह के समीप होते हैं। ये भारी वर्षा से संबद्ध होते हैं।
आर्द्रता (Humidity)
आर्द्रता वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा की माप है। वायु में जलवाष्प की मात्रा वाष्पीकरण अर्थात अंततः तापमान पर निर्भर करती है। यदि तापमान बढ़ता है तो हवा अधिक जलवाष्प धारण कर सकती है।
किसी दिए गए तापमान पर हवा द्वारा इसकी पूरी क्षमता तक जलवाष्प धारण करने को सांद्र अवस्था कहते हैं
वायु की आर्द्रता को प्रकट करने के कई तरीके हैं :
1. निरपेक्ष आर्द्रता (Absolute Humidity) : एक विशिष्ट तापमान पर वायु के एक दिए हुए आयतन में जलवाष्प की वास्तविक मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं।
2. सापेक्ष आर्द्रता (Relative Humidity) : वायु की एक दी हुई मात्रा की निरपेक्ष आर्द्रता और इसके द्वारा धारण की जा सकने वाली जलवाष्प की अधिकतम मात्रा के बीच के अनुपात को सापेक्ष आर्द्रता कहते हैं।
3. विशिष्ट आर्द्रता (Specific Humidity) : विशिष्ट आर्द्रता वायु के प्रति इकाई वजन में जलवाष्प का वजन है जिसे ग्राम जलवाष्प/किग्रा वायु जलवाष्प के रूप में व्यक्त करते हैं।
कोहरा (Fog) यह धुंए या धूलकणों के ऊपर जल की छोटी बूंदों की घनी परत है जो वायुमंडल की निचली परत में घटित होता है। कोहरा धरती की सतह पर स्थित एक बादल है।
वर्षण के स्वरूप
- वायुमंडल में जल तीनों स्वरूपों जैसे-ठोस (वर्ष), द्रव (पानी) और गैस (वाष्प) के रूप में उपस्थित हो सकता है।
- जलवायु विज्ञान में वर्षण का अर्थ वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प के संघनन के उपरान्त बने उत्पाद से है जो पृथ्वी की सतह पर संग्रहित होता है।
- वर्षण के अन्तर्गत जलवर्षा, हिमवर्षा, ओलावृष्टि, फुहार आदि सभी आते हैं।
जलवर्षा (Rain)
- जलवर्षा वर्षण का ही एक प्रकार है जो छोटी-छोटी बूंदों के रूप में या 0.5 मिमी से ज्यादा व्यास वाली बूंदों के रूप में सतह पर आती है।
- जल की बूंदें जब अत्यधिक ऊंचे बादलों की सतह पर आती हैं तो इसके कुछ भाग का वाष्पीकरण शुष्क हवा की परतों में ही हो जाता है। कभी-कभी वर्षा की सारी बूंदें सतह पर आने से पहले ही वाष्पीकृत हो जाती हैं।
- इसके विपरीत, जब वर्षण की क्रिया काफी सक्रिय होती है, तो निचली हवा आर्द्रयुक्त एवं बादल काफी गहरे हो जाते हैं और फिर मूसलाधार वर्षा होती है। इस वर्षा में बूंदें काफी बड़ी-बड़ी और अत्यधिक संख्या में होती हैं।
- वर्षा के प्रकार स्थान एवं अन्य मौसमी विशेषताओं के आधार पर वर्षा को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है।
1. संवहनीय वर्षा (Convectional Rainfall) •
- संवहनीय वर्षा का क्षेत्र अत्यधिक तापमान एवं अत्यधिक आर्द्रता वाला क्षेत्र होता है। संवहन तरंग की उत्पत्ति के लिए सौर विकिरण मुख्य स्रोत के रूप में होता है।
- संवहनीय वर्षा क्यूमलोनिम्बस बादल के बनने से होती है। बिजली की चमक, गर्जन एवं कभी-कभी हिम का गिरना इस वर्षा की विशेषता है। इस प्रकार की वर्षा डोलड्रम की पेटी एवं विषुवतरेखीय क्षेत्र में होती है। जहां यह लगभग प्रतिदिन दोपहर में होती है। इस तरह की वर्षा फसल के लिए अधिक प्रभावी नहीं है। इस वर्षा का अधिकांश जल सतह से होकर बहते हुए समुद्र में जा मिलता है।
2. पर्वतीय वर्षा (Orographical Rainfall)
- यह वर्षा का सर्वाधिक विस्तृत प्रकार है। जब आर्द्रयुक्त पवनें ऊपर उठकर पर्वतीय क्षेत्रों से टकरा कर वर्षा करती हैं तो ऐसी वर्षा पर्वतीय वर्षा कहलाती है।
- पवनें पर्वत के जिस तट से टकराती हैं, उस क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा होती है जबकि विपरीत ढाल “वृष्टि छाया प्रदेश” कहलाता है एवं इन क्षेत्रों में वर्षा नगण्य मात्रा में होती है। इसका कारण यह है कि विपरीत ढाल में वायु नीचे बैठती है तथा उसकी आर्द्रता समाप्त हो जाती है।
3. चक्रवातीय वर्षा (Cyclonic Rainfall)
- चक्रवातीय वर्षा का संबंध चक्रवात के बनने एवं उसके विकसित होने से है। यह वर्षा कृषि कार्यों के लिए अत्यधिक लाभदायक होती है।
- समशीतोष्ण क्षेत्रों में चक्रवातीय वर्षा फुहार के रूप में या हल्की-हल्की बूंदों के रूप में होती है। यह काफी समय तक एवं लगातार होती
फुहार (Shower)
- जब वर्षण के दौरान बूंदें काफी छोटी एवं समान आकार में होती हैं तथा यह हवा में तैरती हुई प्रतीत होती हैं तो इसे फुहार कहते हैं।
- फुहार में जल की बूंदों की त्रिज्या 500 माइक्रोन से भी कम होती है।
- इस तरह के फुहार अतिसंतृप्त बादल से ही बनते हैं जिसमें जल की मात्रा अत्यधिक होती है। इसमें बादल स्तर तथा पृथ्वी की सतह के मध्य व्याप्त वायु की सापेक्ष आर्द्रता लगभग 100 प्रतिशत होती है जिससे ये छोटी-छोटी बूंदें अपने रास्ते में वाष्पीकृत नहीं होती हैं।
हिमपात (Snow)
- वर्षण के दौरान जब हिम के टुकड़े सतह पर आते हैं तो यह हिमपात या तुषारापात कहलाता है। दूसरे शब्दों में हिमपात जल के ठोस रूप का वर्षण है।
- जाड़े की ऋतु में जब तापमान “हिमांक” के नीचे चला जाता है, तो बर्फ के कण ‘अल्टो-स्ट्रेटस’ बादल से सीधे सतह पर आने लगते हैं। ये रास्ते में पिघले बिना सतह पर पहुंचने लगते हैं।
हिमवर्षा (Sleet)
- जब वर्षण के दौरान जल एवं हिमकण दोनों मिश्रित रूप में सतह पर पहुंचते हैं तो यह ‘हिमवर्षा’ कहलाती है।
- जब कभी वायुमंडल में प्रचंड वायुधारा उर्ध्वाधर रूप में विद्यमान होती हैं तो हिमवृष्टि अत्यधिक भयानक रूप धारण कर लेती है।
ओलावृष्टि (Hail) जब हिम छोटे-छोटे दानों के रूप में गिरने लगते हैं जिनका व्यास लगभग 5 मिमी से 10 मिमी के मध्य होता है, तो यह ओलावृष्टि कहलाती है।
सामान्यतया इसमें मटर के दाने के आकार की बर्फबारी होती है, परन्तु कभी-कभी बेसबॉल के आकार की बर्फबारी भी होती है।
यह वर्षण के सभी प्रतिरूपों में सबसे भयावह होता है जो क्यूमलोनिम्बस बादल से बनता है तथा भयंकर गर्जना के साथ सतह पर पहुंचता है।
ओस (Dew) ओस जमीन की सहत या इसके निकट स्थित किसी पदार्थ पर जमी आर्द्रता होती है। यह रात के समय शांत व स्वच्छ वातारण में घटित होती है। जब जमीन के विकिरण द्वारा वायुमंडल की निचली परत को ओसांक से नीचे तक ठंडा कर दिया जाता है, तो जलवाष्प बूंदों के रूप में संघनित हो जाते हैं। शांत मौसम व स्वच्छ आकाश ओस बनने के लिए सर्वोत्तम स्थिति होती है।
चक्रवात और प्रतिचक्रवात
चक्रवात व प्रतिचक्रवात की उत्पत्ति विभिन्न प्रकार की वायुराशियों के मिश्रण के फलस्वरूप वायु के तीव्र गति से ऊपर उठकर बवंडर का रूप धारण करने से होती है।
चक्रवात (Cyclone)
जब केन्द्र में कम दाब के क्षेत्र का निर्माण होता है तो बाहर की ओर दाब बढ़ता जाता है। इस स्थिति में हवाएं बाहर से अंदर की ओर चलती हैं जिसे चक्रवात कहते हैं। चक्रवात में वायु की दिशा उत्तरी गोलार्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा के विपरीत और दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की सूइयों की दिशा में होती है। चक्रवात में हवा केन्द्र की तरफ आती है और ऊपर उठकर ठंडी होती है।
उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का व्यास 100-500 किमी तक होता है। अलग-अलग जगहों पर इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
- हरिकेन (यूएसए) : यह एक उष्ण कटिबंधीय चक्रवात होता है जो वेस्टइंडीज तथा मैक्सिको की खाड़ी में अगस्त-सितंबर महीने में विकसित होते हैं।
- टाइफून (चीन) : यह भी एक उष्ण कटिबंधीय चक्रवात है जो चीन सागर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में विकसित होते हैं।
- टॉरनैडो : चक्रवातों के आकार की दृष्टि से टारनैडो लघुतम होता है परन्तु प्रभाव के दृष्टिकोण से सबसे प्रलयकारी तथा प्रचण्ड होता है। टारनैडो मुख्य रूप से यूएसए तथा गौण रूप से ऑस्ट्रेलिया में उत्पन्न होते हैं । टारनैडो में हवाएं 800 किमी प्रति घंटे की चाल से प्रवाहित होती हैं, जो कि किसी भी प्रकार के चक्रवात से अधिक तेज है।
- विली-विली : ये उष्णकटिबंधीय तूफान हैं जो उत्तर-पश्चिम ऑस्ट्रेलिया में आते हैं।
- चक्रवात : ये उष्णकटिबंधीय कम दबाव के तूफान हैं जो बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के भारतीय तटों पर आते हैं।
प्रतिचक्रवात (Anticyclone)
- जब केन्द्र में दबाव अधिक हो जाता है तो हवाएं बाहर की ओर चलती हैं। इसे प्रतिचक्रवात कहते हैं और इसमें वाताग्र का अभाव होता है। इसमें वायु की दिशा उत्तरी गोलार्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा में और दक्षिणी गोलार्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा के विपरीत होती है।
- प्रतिचक्रवात किसी भी निश्चित दिशा में नहीं चलता है। इससे जुड़ा हुआ मौसम मुख्यतः अच्छा और सूखा होता है।